शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

नववर्ष

जो बीत गया वो अपना था
जो आ रहा  एक सपना सा
जाने वाले तुझे करते प्रणाम
आने वाला तुम हो मेहमान
जा रहा वो उसे दिली बिदाई
समस्त जन नववर्ष बधाई  


गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

राधे में

जो रम गया राधे राधे 
वो थम गया राधे राधे
गिरधर की मुरलिया न्यारी 
मोहन की मूर्ति प्यारी 
बांके को जिसने देखा 
सम्मोहित खड़ा सरीखा 
आँखे ने पल भी झपकी 
बस  खो गया राधे राधे   

कान्हा कान्हा का सुर है 
जो भटकाए आसुर है 
मेरे जीवन की नदी में 
कान्हा का पैंठा दर है 
कान्हा को रटते रटते 
रहूँ कान्हा के भंवर में    
कुछ और मुझे न सूझे
मै रम गया राधे राधे 


नैनो में वो है समाया
मेरे घट घट में वो आया
मेरी रग रग बहता जाये
मेरी जिव्या उसे ही गाये
मेरे नैन मूंद उसे देखें
तन उसी का नाम लपेटे
मुझे  चिंता  न  बीमारी 
मै गाऊं जो राधे राधे 

जो रम गया राधे राधे 
वो थम गया राधे राधे

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

कुछ ना पाया

अभी मरे कुछ वक़्त हुआ था, डरे डरे कुछ वक़्त हुआ था
कौन हूँ मै आया कैसे क्या होगा सोच जमा रक्त हुआ था
तभी किरण सी एक थी चमकी ध्वनि कानो में एक धमकी
सभी अपने पूर्व में जाएँ अच्छे बुरे का सब हिसाब बताएँ
मै अपनी यादों में खोया हिसाब किया क्या पाया क्या खोया
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया ...............

रातों को तो था मै सोया, स्वपनों में था सिर्फ खोया
पर जीवन में मानवता का बीज न बोया 
दिनों दिन भागा, सोया खोया, जागा भागा
चक्रव्यूह में गया फंसकर कुछ ना पाया बस भागा
सोचा जो क्या पाया क्या खोया
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया ..................

सभी तो थे, पर कोई ना था, सब कुछ था, कुछ ना था
जो जोड़ा था वो छोड़ा था, पर साथ ले जाऊं गुण थोडा था
खून के साथी साथ में ना थे, अवगुण थे गुण साथ ना थे
लकड़ी पाई अग्नि पाई, माटी माटी के संग आई
लोटा भर गंगाजल पाया, लगा मुझे क्यूँ था मै आया
सोचा जो क्या पाया क्या खोया,
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया..............

अब करने को हम ना थे, सहने को कोई ग़म ना थे
जो कुछ सहा सब छोड़ा छाडा, बस कुछ गज़ एक लट्ठा फाड़ा
सफ़र में चलने को त्यारी, कंधो पे थी पालकी हमारी
सब के मुख एक ही सुर था, अंतिम यात्रा का ये गुर था
कहने को सब अपने थे, जागे हुए कुछ सपने थे
अब आँख मिची हम जागे हैं, मरघट छोड़ सब भागे है
सोचा जो क्या पाया क्या खोया
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया............

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

साहित्य से नजदीकी

हम साहित्य की बात कर रहे थे
क्या होगा साहित्य का
यह सोच सोच कर डर रहे थे
कैसे बचाएं यह धरोअर इस उजड़ते समाज से
और कैसे अब बचाए इसे महा पंडितों के दाग से

अचानक विपरीत पक्ष से सवाल दगा गया

साहित्य किसे कहते हैं ?
जवाब दिया जिसके बलबूते हम सभ्य शिक्षा पाते हैं
जिसके कारण हम सबके हित की कहते, गाते हैं
जिसके रिश्तेदार अब जीवन के आखिरी पड़ाव में हैं
जो वयस्क हैं वो व्यवसायिक अंश के जकडाव में हैं

फिर सवाल आया साहित्य कहाँ है?
मै कहता पग पग में
अचानक पूछ लिया साहित्य को कहाँ ढूंढे?
महसूस करो हर पल में
 
वो बोले पहचान बताओ
हम बोले पहचान है तुम्हारी हर साँस
तुम्हारी जिज्ञासा तुम्हारी हर आस
उसे खोजने की चाह उसके लिए हर आह
तुम्हारे जीवन की प्रतिबधता समाज की कुछ बचीकुची सभ्यता
रिश्तों की धुंधली मिठास पत्नी के मन का विश्वास
बहन की राखी की लाज, पति का पत्नी पर नाज
पिता का पुत्र पर अधिकार माँ की गोद का अहसास
एक घर एक परिवार एक गाँव एक संसार और हर क्षण की प्यास
हर गीत हर संगीत धरती आकाश हर भीत और हर ओर की राह

अरे जहाँ चाहो वो मिलता है उसके बिना पत्ता भी ना हिलता है
इससे पहले कुछ और पूछे हम ताव खा गए
और कह दिया तुम जो बचे हो साहित्य उसका कारण है
अगर हम साहित्य के नजदीक ना होते तुम यहीं खेत होते

तुम चाहो भी तो लुप्त ना होगा छिपाओगे पर गुप्त ना होगा
सांसें चलती उसकी लय में संसार चलता उसकी शय में
अगर जीवन है तो साहित्य है अगर मरण है तो साहित्य है
साहित्य समय का हर चरण है हमने ओढ़ा वो आवरण है

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

आटा बिखर गया

सर्दी में था पसीने से नहाया
गर्मी में था खून भी सुखाया
तब था गरीब ने खाना पाया
एक थैली भर वो आटा लाया
अमीरी ठोकरों से विफर गया 
गरीब का ही आटा बिखर गया

रफ्तारी कार पड़े आटे गुजरी
आटे ने आंतरिक लहू उगला
कर्राहट कौम की थी चीख पड़ी
आटा पड़ा रहा, बिखर पगला
ऊँचे ह्रदय न कुछ सिहर गया  
गरीब का ही आटा बिखर गया

दो जून रोटी उसी आटे से होती
अट्टालिकाएं झोंपड़ी दोनों पोती
मानव ने मानव को जुदा किया
रोटी को ही रोटी से अलेदा किया  
क्यूँ आटा आटे को अखर गया
गरीब का ही आटा बिखर गया
   

   


रविवार, 11 दिसंबर 2011

कैसे चुकाऊं कर्जा


हे प्रभु क्यूँ इस जहान पर इतना अत्याचार किया
जनम दिलवा माँ बाप से सबको करजदार किया

कैसे कर्जा चुकाऊं मैं यह सोच सारा जनम गया
पर कर्जा माँ बाप का मेरे संग आया संग ही गया

तेरी लीला तू जाने राजीव ना पूछे यह सब क्यूँ किया
पर एक बात तू सच बता तुने तेरे कर्जे का क्या किया

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

पुलिस में नौकरी

हे प्रभु एक विनती है तुमसे
मोकु अगला जनम ना दीजो
अगर भाग्य में जनम लिखा हो
पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो

ना ही चाहूँ सोना चांदी
ना ही चाहूँ महल दुमहले
बस एक डंडा दिलवा दीजो
पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो............

चोर डाकू कोई पकडूं नाही
रोज मै पूजूँ अफसरशाही
चाय पानी लेकर छोडन का
मोकु लाइसेंस दिलवा दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो..........

अफसर बनना मै ना चाहूँ
कोई पदौन्ती मै ना पाऊं
पर मेरी नियुक्ति तो प्रभु
लाल बत्ती इलाके करवा दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो.............

रिश्ते नाते कोई ना चाहूँ
घरवालों की बंदिश ना पाऊं
चाहूँ तो बस इतना चाहूँ
बिन कटोरी बिन भीख के
मांगना मुझको सिखला दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो.........

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

जीवन चक्र

आत्मा के अमर होते ही
भस्म हो गया शरीर
संग पानी के डोलता फिरा
चंचल मानव शरीर

लिया इस जल को खींच
जड़ों ने, वृक्षों पौधों के
बदली भस्म पुष्पों फलों 
वनस्पतिओं में

भोजन स्वरुप वनस्पति को
किया ग्रहण दम्पति ने
यज्ञ किये शरीर में
आत्माओं ने

बदल रूप आई भस्म
रक्त मांस के लघु कणों में
जुड़े वो कण बिंदु
गर्भ के क्षीर सागर में

पुन रूप बदल आई भस्मी
लिए एक बालक का जीवन 

रविवार, 4 दिसंबर 2011

बेटी बिदा होती बाबू

अपने आंसुओं पर रखो काबू
आज बेटी बिदा होती बाबू
बचपन में खेली जिस अंगना
आज वो भी चला मेरे संग ना
कैसे पिया का चल गया जादू

छोड़ कर सब सखियाँ सहेली
चिड़िया सी चहकती थी खेली
कर सूना तेरे घर का कोना
मै चली पर तू यादें न खोना
बेटी परछाईं कहती सदा तू

मैया अब तू किसे डांटेगी
किसके बालों में कंघी फांसेगी
खनखनाती खामोश रसोई
कोई तंग न करेगा तू सोई
कैसे अकेली सम्भालेगी घर तू 


भाई छोड़ चली तुझे बहना
तू माँ बापू का एक ही गहना
झगड़े जो हुए सब भूल जाना
पर राखी पर बहिना बुलाना   
देख बचपन छोड़ेगा अब तू

मुझे कर दिया सबने पराया
जब से पिया को मुझसे जुडाया
क्या बेटी का रिश्ता हूँ खोई
अब कुछ करूं, न रोके कोई
यही विधि का विधान बता तू

आज बेटी बिदा होती बाबू

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

सच्चीमुच्ची

सच एक ऐसी चीज है
जो सब को नसीब है
लकिन आज के युग मे
कुछ की खो गई
कुछ रख कर भूल गए
कुछ के पास है
कुछ सत्यवादी हो गए

मै भी
सच को पूजता हूँ
हमेशा सम्भाल कर रखता हूँ
क्यूंकि उसका दुश्मन झूठ
हमेशा पिलाता है मुझे कड़वे घूँट
जब भी सच को सामने लाना चाहता हूँ
झूठ मुझे सताता हैअपना साम्राज्य याद दिलाता है
मुझसे कहता है
अरे मुर्खक्यूँ समय बर्बाद करता है
सच को याद करता है
मुझसे मांग जो मांगना है
किसको उल्टा किसको सीधा टांगना है

याद रख आज मेरा साम्राज्य है
और तुझे
किसी और का नहीं
सिर्फ मेरा हुकुम मानना है

अरे पापी
तुने एक बार हाथ बढाया था
मुझको अपनाया था
तुने सुना है दोस्त दोस्त के काम आता है
तू मुझे छोड़ के जाता है
मुझे देख
मै आज भी तेरे साथ हूँ था रहूँगा
तू ग़लत काम करयो
मै बचाता रहूँगा
अगर फिर भी
सच अपनाने की ठानी
छोड़ी न अपनी मनमानी
तो याद रख
आज तक तो दोस्ती देखी है
फिर पड़ेगी दुश्मनी निभानी
न पिटता हुआ पिटवा दूंगा
सरे आम मरवा दूंगा
दफ्तर में कलह
घर से निकलवा दूंगा
तू बड़ा मेरे बल पर छाती ताने घूमता है
अरे तन के सारे कपड़े उतरवा दूंगा
प्यार से कह रहा हूँ
दोस्त मान जा                  
सच से कुछ नहीं होने वाला
झूठ को पहचान जा
जब भी मेरे सामने ये घटना आती है
झूठ की याद सताती है
क्यूंकि जब भी सच बोला
दुख ही झेला

चुपचाप बताता हूँ
सच को भी पूजना चाहता हूँ
लेकिन
झूठ के डर से
तिजोरी में रखता हूँ
सामने लाने में घबराता हूँ  

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

मेरी बारात

आओ बनाओ दूल्हा मुझे
मेरी बारात ले चलो
पहने हैं नये वस्त्र अभी
मेरी ये राख ले चलो

दूल्हन बनी खड़ी है जो
आओ ब्याहने उसको चले
पहने है स्याह जोड़ा नया
आओ लिवाने उसको चलें

आज पहली रात है दोनों की
सब छोड़ अकेले आओगे
फिर जो निभाए बंधन हमने
तुम देखने एक पल आओगे

एक तोहफे का तो हकदार हूँ मै
चक्षु न करना नम कभी
रहें सदा हम दोनों यूँ ही
बस ये दुआ करना सभी

बुधवार, 30 नवंबर 2011

ममता की मूरत

जग में सुन्दर ममता की मूरत
है अपनी माँ
घूम के देखि दुनिया सारी
माँ नहीं मिली वहां
कष्ट झेल कर, नौ नौ महीने
दुनिया हमें दिखाती
अपने खून को दूध बनाकर
छाती से है पिलाती
ऐसा दूध और ऐसी ममता
हमको मिले कहाँ
घूम के देखि दुनिया सारी
माँ नहीं मिली वहां

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

मैं भूल गया

मुझे याद क्यूँ ना कुछ रहा
मैं भूल गया क्यूँ कल का सहा

पानी मे वो प्रतिबिम्ब था
प्रतिबिम्ब ने था मुझसे कहा
जो तुझमे है वो उड़ेल दे
हर्फों के सबको खेल दे
तेरी वेदना या चेतना
उसमे हो तेरा लिखा सना
जो पाया मैंने संचय किया
लिखने वो बैठा जो था सहा

पर हाय रे यह क्या हुआ
मैं भूल गया क्यूँ कल का सहा

एक बार फिर एक राह दिखी
मरू मैं बैठा लिखने अपनी लिखी
मैंने अपने को फिर छुआ
बचा कूचा फिर हर्फ़ हुआ
मरू की शांति संग थी
मेरी वो भ्रान्ति तंग थी
मै लिखता जाता हर कण में
वो छुपता जाता हर क्षण मे
मैं पुनः जो बैठा लिखने को

पर हाय रे यह क्या हुआ
मैं भूल गया क्यूँ कल का सहा

तरसता हूँ

बिन बंधे सफों सा
पड़ा हूँ सुनसान बस्ती में
समीर का हर झोंका
उड़ा जाता है कुछ सफे

तरसता हूँ एक हस्ती को
जो बांधे मुझे करीने से
या उड़ जाएगी मेरी हस्ती
इन सफाखोरों की बस्ती में

सोमवार, 28 नवंबर 2011

मिलने की चाह

आज दिन भर मुलाक़ात ना हो सकी अपनेआप से
सिवाय मेरे हर व्यक्ति मिला मुझ बड़े साहेब से

ढले हुए सूरज की शीतल रौशनी मै
मुस्कुराता मस्तीभरा चला
लिए मिलने की चाह अपनेआप से

परन्तु हर रोज की तरह
यादों ने छीन लिया
अकेलापन मुझसे
रह गई अधूरी चाह
मिलने की अपनेआप से

आज मिल ना सका
कोई गम नहीं
फिर किसी अच्छे दिन
लूँगा मिलने का appointment अपनेआप से

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

विरोध करूँगा

तुम कुछ भी कहो
मै विरोध करूँगा
कारण कुछ नही
विरोधियों संग हूँ
जानता हूँ भलाई है
हमे तो कहना बुराई है
राजनीति में जब आया
पहला पाठ यही सिखाया
अगर तुम्हारी हाँ से मेरी हाँ मिली
दल विरोध की समझो सजा मिली

तुम मुफ्त में अन्न बांटोगे
सड़ा बांटते कह न खाने का अनुरोध करूँगा
तुम नंगे का तन ढाकोगे
मुर्दों से उतारा नंगे रह ठिरो अनुरोध करूँगा
तुम चाह कर भी कुछ न कर पाओ
बस इस बात की बाट देखूंगा
कारण कुछ नही
विरोधियों संग हूँ
जानता हूँ भलाई है
हमे तो कहना बुराई है

मै वो नही जो कुर्सी माँगू
अपना अस्तित्व खूंटा टागुं
मेरा चरित्र विरोधी है
मुझे खुल कर विरोध करना है
अगर भूखा मरुँ मेरा पेट न भरना
वरना तुम उसमे भी करोगे विरोधी सामना
कारण कुछ नही
विरोधियों संग हूँ
जानता हूँ भलाई है
हमे तो कहना बुराई है

देश प्रेम में जीता हूँ
दुश्मनों के छक्के तुमने छुड़ाए पता है
ये अंदर की बात है हम दिल से साथ हैं
पर जनता बेचारी को कुछ न ज्ञात है
मुझे कहना ही है तुम समय पर न चेते
दुश्मनों से सम्बन्ध रखते तुम्हारे चहेते
कारण कुछ नही
विरोधियों संग हूँ
जानता हूँ भलाई है
हमे तो कहना बुराई है

तुम ये मत समझना मेरा दल है
बस विरोध करना ही मेरा बल है
कोई आए कोई जाए
चाहे कोई दल सत्ता पाए
मै हर समय विद्यमान रहूँगा
हर समय हर बात का विरोध करूँगा
कारण कुछ नही
विरोधियों संग हूँ
जानता हूँ भलाई है
हमे तो कहना बुराई है 
   

बुधवार, 23 नवंबर 2011

करो नेत्रदान

सरपट बस दौड़ती जाती थी
यात्रियों को नींदिया आती थी
पर एक बच्चा माँ संग बैठा
प्रश्नों की झड़ी लगाता था
सहयात्री कच्ची नींद से उठ
गुस्से में घूर उसे खाता था
माँ चमक में न दीखता सूरज
रात में क्यूँ चंदा दीखता है
आदमी औरत अलग अलग
क्यूँ पेड़ पीछे जाता दीखता है
ये पहाड़ क्यूँ पीछे जाते हैं
बादल संग में क्यूँ आते हैं
बच्चे के प्रश्नों को सुन कर
माँ आँखे भर भर लाती थी
मंदबुद्धि का पक्का है इलाज
बोला क्यूँ आँख भर लाती हो
माँ बोली ये नहीं है मंदबुद्धि
कुशाग्र पुत्र था जन्म से अँधा
अभी इलाज करा पाए हैं नैन
पहली बार देखता गौरखधंदा
तनिक भैया तुम दो ध्यान
दिल में ठानो करो नेत्रदान          

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

दोनों ओर खड़े

प्रिय उस पार तुम गाड़ी में
इस पार हमारे नैन खड़े
उस पार है सामान बंधा
इस पार हमारे नैन थमे
उस पार बस तुम चलने को
इस पार सोच हैं पाँव जमे
गठबंधन हो जब ढीले पड़े
रिश्तों की महत्वता जाती है
बीच पड़ती बढती है खाई
जिसके तुम हम दोनों ओर खड़े

सोमवार, 21 नवंबर 2011

झूठ का पर्दा

श्रद्धा सुमन चढाओ मुझ पर
कोई वन्दना गाओ मुझ पर
बड़ा बनने की चाह जगी है
चरण छू घमंड लाओ मुझ पर

मै नेता से न छोटा दीखता हूँ
कर्मो में न सम खोटा दीखता हूँ
जब वो पा सकता है पूजन तुमसे
वही श्रद्धा प्रेम लुटाओ मुझ पर

कर की करके चोरी जब धन्ना
विराजा जाता मुखिया सा अन्ना
बड़े बड़े चरणों में आते उसके
मुझको चिढ़ा हंसते हैं मुझ पर

पढ़ा लटक लटक कर बामुशकिल
कारण गुरु दक्षिणा न पाई मिल
पर सच बंद कमरे छुपा ही रहा
कोई झूठ का पर्दा चढाओ मुझ पर

बंद कमरे में मुझको तुम छेतो
चाहे कूड़ा कटका मुझ पर लपेटो  
पर एक भरे भवन चरणों में मेरे
तुम शीश झुका बहकाओ मुझ पर

आज मै जन्मा जिन्होंने कोसता हूँ
शिक्षा क्यूँ मानी पड़ा ये सोचता हूँ
उनको ये क्यूँ तब पता रहा नही था
सच सिखा जग हंसा गये वो मुझ पर 

आडम्बर में जीना अब हो चला ज़रूरी
झूठी बातें झूठा जीना बेहद है मजबूरी 
सच्चा नही तुम जैसा ही झूठा हूँ मै
पापी क्यूँ बनते उठा पाषाण अपने पर 
             

शनिवार, 19 नवंबर 2011

रिश्ता जोड़ गये

जब एक एक कर सब छोड़ गये
एकांकी कर मुख सब मोड़ गये
तब भावों ने आ मुझे संभाला है
पृष्ठों पर उमड़ विचार निकला है

सब भीतर ही था छुपा हुआ
पर भौतिकवाद मुझे घेरे था
अभिव्यक्ति से व्यक्त हुआ
क्यूँ नैतिकता में घिरा रहा

सब विमुख हो, सम्मुख कर
धकेल साहित्यिक दहलीज पर
मुझे कहाँ अकेला छोड़ गये
मुझे मेरे ही भीतर जोड़ गये

मुझे कलम दवात हाथ थमा
भाव विचार मेरे माथ जमा
साहित्य से रिश्ता जोड़ गये
जब एक एक कर सब छोड़ गये


शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

जीवंत जीवन

माटी गूँथ आकार मिला
न जीने को संसार मिला
था नाम दीया दीया मुझे
व्यर्थ था पड़ा यूँ बुझे बुझे
तभी बाती बतियाने आई
चिंगारी संग तेल सलाई
मुझमे संगम होने लगा
अंधकार में प्रकाश जगा
स्वयं जल जो प्रकाश बहे
जीवंत ही वो जीवन रहे 

 

शनिवार, 12 नवंबर 2011

हम नौकर उनके

माँ सब कहते हम नौकर उनके
हम पलते है खाकर टुकड़े उनके
माँ तू ही सारा दिन लगी यूँ रहती
दर्द बदन अपने हर अंग में सहती
मुझे खेलता देख, देख मुख उनका 
क्यूँ हर क्षण चढ़ा चढ़ा सा होता है
माँ मुझे बता ये नौकर क्या होता है

हम मेहनत कर तब कुछ कमा पाते 
वो घर बैठे बतियाते फिर भी कमाते
ऐसे कौन से काम हैं जो हमे न आते
कर वो धन्ना सेठ हम नौकर कहाते
तू कहे  मेहनत की रोटी अच्छी होती
तेरी मेहनत देख सेठ खुश न होता है
माँ मुझे बता ये नौकर क्या होता है

काका सर पर पत्थर रख शरीर खोते
उनकी मेहनत से ही महल सरीखे होते
पर बनने पर उनमे न वो जा सकतें हैं
एक निवाला पाने की वहीं राह जोतें हैं
ताज शाहजहाँ ने बनवाया सब जाने हैं
पर मजदूर बना ताज क्यूँ हक खोता है
माँ मुझे बता ये नौकर क्या होता है


छोटू भाई बर्तन घसता पानी भरता
दूर से ही देख मदरसा आहें है भरता
गाली ठोकर खाकर कभी पेट भरता
हर मौसम वस्त्र उसका फटा ही होता  
झूठन उसका है एक चर्चित निवाला
भाई हंस कर कैसे सारे ग़म सहता है
माँ मुझे बता ये नौकर क्या होता है 
   
छोटू रामू पप्पू कालू तम्बी ओये अबे
रानी काकी बुढिया कल्लो अरी मरी मरे
इन नामो संग क्या अपना रिश्ता पुराना
जहाँ सुने ये नाम समझो वो नौकर जाना
माँ काहे तू बुत बनी सब सुनती जाती है
कुछ तो कह मन मेरा विचलित होता है
माँ मुझे बता ये नौकर क्या होता है

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

रिश्ते

रिश्तों पर नज़र तुम रखते हो 
रिश्तों को नज़र लग जाती है 
प्रेम से है बनी हर रिश्ते की नीव 
वो प्रेम की नीव हिल जाती है

खुदा के बनाये है रिश्ते सभी 
शक कोई खुदा पर कैसे करे 
इल्जाम खुदा पर जब भी लगा 
खुदा की खुदाई हिल जाती है

क्या सुनते कहते सबसे हैं वो
वो ही जाने ये उनकी हैं बातें
खुद को उनमे खुद फंसा कर
रिश्ते में लकीर पड़ जाती है

यकीन हो तो अपना रिश्ता
इस जहान में कभी न रिस्ता
प्रेम जो बांटो आँख मूंद तुम
रिश्तों की झड़ी लग जाती है  

रिश्तों पर नज़र तुम रखते हो 
रिश्तों को नज़र लग जाती है 
प्रेम बना हर रिश्ते की नीव 
वो प्रेम की नीव हिल जाती है

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

दिवाली बदले

न तुम्हारी दिवाली बदली न बदली मेरी दिवाली 
तुम पहले से खेल रहे हो मै भी पहले सी हूँ खाली 
बाहर फटते फटाखे मुझको भीतर फोड़ रहे हैं 
इस बरस भी न वो आये दिन बरस से दौड़ रहे हैं
मेरा अंगना कब लिपुंगी, कब दीवारें पोतुंगी 
एक दिया अंगना बालूं मेरा फूल तो भेजो माली

चाँद से भेजा था संदेसा, बैरंग लौट के आया है 
पवन निगाहें चुरा रही है, पता उसे न पाया है 
तुम चिठ्ठी लिख कर भेजो मै अनपढ़ हूँ पढ़ लुंगी 
हर अक्षर ऊँगली रख मै झोली तारों से भर लुंगी 
भीगे नैन गगन निहारे दहलीज भिगो रहे हैं
जैसे पतझड़ जाने वाला, फैलेगी अब हरियाली 

सुध भी खोई खोई बुध भी खुद को भी खो दूंगी
तरस तरस बरसों बीते अब साँसों को भी न लुंगी 
तीज त्योहारों पर विरह अब नही सह पाती हूँ 
हर दिन तीज मनाऊं, मै सपनों में खो जाती हूँ
अब तो आओ मेरे साजन, बैठी ले सुनी लाली 
मेरी भी दिवाली बदले, खेलूं न रहूँ मै खाली 
   
     

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

टूटन

ये सामाजिक तौर तरीके
सच छुपे, आडंबर दीखे
रिश्ते कहाँ खो गये पुराने
आज रिश्ते खींचते दीखे

मौसम ने बदली पगडंडी
बिन मौसम मौसम दीखे
कब सांझ ढली कब भौर हुई
समय गया जाता न दीखे

खिंच रहे हो हर क्षण को
असमंजस में,रबर सरीखे
टूटन ही है पास तुम्हारे
न टूटे कुछ ऐसा सीखे    

  

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

विडंबना

मानव सभ्य है या असभ्य

यदि सभ्य है
तो क्या ज़रुरत है
संविधान
और कानून की
यदि असभ्य है
तो क्या ज़रुरत
संविधान
और कानून की  

सभ्य समाज
संविधान
पुलिस नियंत्रण
और
कचहरी
अजब विडंबना है ठहरी 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

विरहन की विरह

बादल ने ली है अंगड़ाई
क्यूँ याद तुम्हारी आई
रिमझिम फुहार पड़ते
हिचकी पे हिचकी आई

मौसम को सहते रहते 
पर तुमसे कुछ न कहते 
एक जाता दूजा आता 
पर न हमको डिगा पाता
बारिश की ये जो बूंदे
छीने हैं मेरी तन्हाई 

सोचो तो क्या तब होता 
जो मौसम न ये आता 
मिलने की एक अग्न का 
अहसास न हो पाता 
अंगो ने तोडा मौन 
ज्यों ही चले पुरवाई

विरहन की विरह देखो 
रब से न देखि जाती 
वो कैसे सह रही है 
सहन न देखि जाती 
उस विरहन की अग्न को 
भडकाने बूंदें आईं   

बादल ने ली है अंगड़ाई
क्यूँ याद तुम्हारी आई
रिमझिम फुहार पड़ते
हिचकी पे हिचकी आई

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

जूता

ये जीवन तो गया यूँही 
अगला न व्यर्थ जाये 
बैठ माँगा प्रभु के समक्ष
अगला किसी काम आये 

किसी के हाथ में हो
किसी के चरणों में 
किसी की कमर से 
किसी के कूल्हों से 
किसी के सर पर रहूँ 
हर किसी के घर रहूँ
प्रभु ऐसा अवतार दे
न मेरे बिन कोई रहे

प्रभु का उपकार समक्ष आया  
अगला जन्म जूते के रूप में पाया

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

दोस्ती

आज एक दुश्मन मिला जो 
दोस्त का चोला ओढ़े था 
दोस्ती अपनी निभाने 
अस्त्र शस्त्र वो जोड़े था

दोस्ती का रूप अनोखा 
कहीं प्रेम है कहीं है धोखा 
मत कर यारी आँखें मूंदे 
पीनी होगी लहू की बूंदे  
अब कुछ ऐसे भी आते हैं 
समय पर धोखा दे जाते हैं 
दोस्ती की परिभाषा में वो  
लहू में लथपथ हो जाते हैं 

आओ उस इंसान को ढूंढे 
दोस्त बने शैतान को ढूंढे 
उसके उजले वस्त्र मिलेंगे 
दाग नही छुपे शस्त्र मिलेंगे 
मुख भरा मुस्कान से होगा 
रूप मिला शैतान से होगा
कोसने का असर न कोई 
बिन हिले चट्टान सा होगा 

और जो चाहो उसे जानना 
करना उससे गलत कामना 
इच्छा जो तेरी पूरी करदे 
गलतियों से दामन भर दे 
उससे बड़ा न दुश्मन कोई
उसमे दोस्ती बीज न बोई 
एक दिन ऐसा घात करेगा 
जिसका न कभी घाव भरेगा

दोस्तों चाहे अकेले रहना 
दोस्ती में ध्यान से बहना 
वर्ना एक दिन पछताओगे 
मेरे संग तुम भी गाओगे 
आज एक दुश्मन मिला जो 
दोस्त का चोला ओढ़े था 
दोस्ती अपनी निभाने 
अस्त्र शस्त्र वो जोड़े था

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

बिछड़े दोस्त

बुझ चूका है दिया मेरे संसार का
ग़म खाए जा रहा मुझे बिछड़े यार का 
वो बचपन का खेला वो जवानी का मेला 
संग संग रहे हम न छोड़ा अकेला
आज करके अकेला तू कहाँ छुप गया रे   
एक बार तो बता तू पता अपने घर का


न दिनों का पता था न रातों की चिंता 
संग चले थे सदा खोया पल भी नही था  
वो बारिश का पानी, उसमे भीगी जवानी 
गर्मियों की घमोरी, तन से टप टप पानी 
सर्दियों का वो कम्पन, दोस्त संग सहा था
अब कैसे कटेगी जिंदगानी पता क्या

उपर वाले बता तू तेरा कैसा ये खेला
बिछोड़ा तो बनाया क्यूँ प्यार उडेला
दोस्तों की कमी है तुने उसको बुलाया
एक बार ना सोचा कैसे दिल दहलाया
कैसे अब सहूँ बिछोड अपने यार का 
ग़म खाए जा रहा मुझे बिछड़े यार का

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

समय बदलना चाहिए

फिर वही चिंगारियां बदल रही शोलों का रूप 
फिर वही बिन तपन, बिन अग्न आई है धुप 
चुलेह तरसेंगे यहाँ क्या दो वक्त की सेकने
बिलबिलाते पेट तरसेंगे कोई आए फेंकने
बहुत हुआ अब ये नजारा न चाहिए सामने 
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने 

दूसरों से उम्मीद रखने की वो आदत छोड़ दे 
आयेगें हमको बचाने नीव सोच की तोड़ दें 
आओ ढूंढे आग ये बार बार क्यूँ लग रही 
अपाहिज होते ही क्यूँ चाह उनकी सज रही 
कहीं आदत पड़ न जाए बैसाखी की थामने 
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने
 
कहीं हर चिंगारी का उनसे कोई नाता नही 
बिन स्वार्थ कौन किसी दूजे को बचाता नही
छुपे हुए उस शातिर को, कुचलना चाहिए 
अब समय हुआ, चलो समय बदलना चाहिए
नये भौर के साथ, नई फंसलों को काटने  
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने    

प्रेम का संदेश वो हर बार देकर जाते हैं 
धार्मिक भ्रांतियां का कारोबार दे जाते हैं
भाई भाई थे यहाँ भाई भाई से रहते थे 
पर उन भाइयों में, भी नया भाई दे जाते हैं
हम ही बहुत है यहाँ, कोई आके देखे सामने 
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने 

छोडनी होगी आदत मध्यस्थ बैठाने की 
घर के झगड़ों में राय उनकी मंगवाने की 
अपना घर चलाना है तो हम ही चलाएंगे 
क्यूँ उनकी शर्तों से चुलेह घर के जलाएंगे 
गिरें नही सम्भलना है अब मंजिल नापने  
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने  
       
 

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

रहमत

या खुदा ये कैसा कर्म है 
हम पर तेरी महर हुई 
बीत गया जो अंधकार था 
अब नई मेरी सहर हुई  

ये कैसी बदली काली थी 
दीखता था वो न दिखा 
बिछड़ गये जो अपने थे
संग साया तक भी न रुका 

नैनो से मोती न थमते 
जुबां हलक में जमती थी 
कान तरसते थे सुनने को
जो बाहों में थमती थी 

तेरी रहमत के आगे अब 
सजदा सजदा और सजदा 
कब क्या होगा कैसे होगा 
जाने तू बस तू है खुदा

या खुदा ये कैसा कर्म है 
हम पर तेरी महर हुई 
बीत गया जो अंधकार था 
अब नई मेरी सहर हुई

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

बुझा दिया

मै दिया हूँ बुझ जाऊंगा अभी 
तुम मुझे हवाओं से दूर रखों 
मेरे पास तो बैठों ज़रा सी देर 
थोड़ी ओट करो थोडा जीने दो

उम्र यूँही तमाम मेरी डर डरी
थोडा हौंसला भी तो लेने दो 
चैन टीमटीमाहट को मिले
अपनी रेखाओं से तो जकड़ों

तेरी एक चिंगारी लेके मै 
राह चल पड़ा जो तुने दी 
खुदको जलाया इसलिए 
तेरी राह में उजाला तो हो

तुमने है पायी जो मंजिलें
उनमे हमारा ही साथ था 
जो तुम कहो अकेले थे तुम 
हम बुझ गये ये धुआं बहे   

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

चल बसा समझना

तुमेह खो कर हमने है पाया था खोया
मिले तुम थे जबसे, जगा था पर सोया
वो नयनो में मोती कम होई थी ज्योति 
तारों से था पूछा क्यूँ आँख नम  होती
हम जुदा थे हमीसे, हम हमे ढूँढ़ते थे 
यूँ मिलते थे सबसे, ज्यूँ सबमे तुम्ही थे 
अचानक ये कैसा झोंका. तूफान का आया 
सभी तो खड़े थे, पर तुमको को नहीं पाया

जो जाना था तुमको, तो आना था कैसा
न अब का ही रखा, न पहले सा छोड़ा
चलो जो हुआ सो, हुआ था जो होना 
अब जीना हमे है पर, तुम पल न रोना 
ये जग जानता है न तुम तुम हो न हम 
जख्म जो दिए तुमने, हम रखेंगे फोया 

यादें मिलेंगी जो तुम्हे हर राह पर 
उन्हें देखकर तुम, बस अनदेखा करना
संजोये हमारे, स्वप्नों को बस तुम
स्वप्न ही समझना, न देखा करना
तुम तो चले गये, मुस्कुरा बिखेरे
हमे भी अब तुम, चल बसा समझना  

तुमेह खो कर हमने है, पाया था खोया
मिले तुम थे जबसे, जगा था पर सोया

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नई सोच

आज फिर सँवारने आया तुम्हारे सामने
गर्त की परते जमी बरसों तुम्हारे आंगने 
बुहारी पकड़े हाथ बुहारते हर और गार 
निश्चय मेरा ही सफल बढ़े हाथ थामने

जब तलक न होंगी परतें धुल की विलय 
जब तलक न होंगे झरोंखे हर घर के खुले 
तुम जो चाहो भी बदलना बदल सकते नही
हर ओर छाएगी उदासी मन में होगी कलह      

आज जब तितलियों ने लगाया अपना फेरा 
खुशिओं की दौलत बिखर गई अपने डेरा 
किलकारी से गूंजेगा जब अपना ये आशियाँ 
एक नई सोच होगी, खुशबु से महकेगा घेरा 

रूठ गया था बहुत दिनों बात लौटेगा बसंत 
शांत चर्र पर्र, बहुत दिनों बात चहकेगी चिरयं
ओ ख़ुशी दूर न जाना, मेरी बगिया हरी है 
इसमे आकर चहकना और खिलना खिलाना       

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

झूठ के डर से

सच एक ऐसी चीज है
जो सब को नसीब है
लकिन आज के युग मे
कुछ की खो गई
कुछ रख कर भूल गए
कुछ के पास है
कुछ सत्यवादी हो गए

मै भी
सच को पूजता हूँ
हमेशा सम्भाल कर रखता हूँ
क्यूंकि उसका दुश्मन झूठ
हमेशा पिलाता है मुझे कड़वे घूँट
जब भी सच को सामने लाना चाहता हूँ
झूठ मुझे सताता है
अपना साम्राज्य याद दिलाता है
मुझसे कहता है
अरे मुर्ख
क्यूँ समय बर्बाद करता है
सच को याद करता है
मुझसे मांग जो मांगना है
किसको उल्टा किसको सीधा टांगना है

याद रख आज मेरा साम्राज्य है
और तुझे
किसी और का नहीं
सिर्फ मेरा हुकुम मानना है

अरे पापी
तुने एक बार हाथ बढाया था
मुझको अपनाया था
तुने सुना है दोस्त दोस्त के काम आता है
तू मुझे छोड़ के जाता है
मुझे देख
मै आज भी तेरे साथ हूँ था रहूँगा
तू ग़लत काम करयो
मै बचाता रहूँगा
अगर फिर भी
सच अपनाने की ठानी
छोड़ी न अपनी मनमानी
तो याद रख
आज तक तो दोस्ती देखी है
फिर पड़ेगी दुश्मनी निभानी
न पिटता हुआ पिटवा दूंगा
सरे आम मरवा दूंगा
दफ्तर में कलह
घर से निकलवा दूंगा
तू बड़ा मेरे बल पर छाती ताने घूमता है
अरे तन के सारे कपड़े उतरवा दूंगा
प्यार से कह रहा हूँ
दोस्त मान जा
सच से कुछ नहीं होने वाला
झूठ को पहचान जा

जब भी मेरे सामने ये घटना आती है
झूठ की याद सताती है
क्यूंकि जब भी सच बोला
दुख ही झेला

चुपचाप बताता हूँ
सच को भी पूजना चाहता हूँ
लेकिन
झूठ के डर से
तिजोरी में रखता हूँ
सामने लाने में घबराता हूँ

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

फुलवारी

गंगा नहाये पाप धुले, साबुन धोये मैल |
ऐसो कलंक ना पाइओ, ना छुटे कहूँ गैल ||

मौत आ जाये तो मैं जिंदगी पाऊं |
मरने की चाहत मैं जिए चला जाऊं ||

मन को भँवरा बना के काहे ढूंढे फूल|
खुशबु तेरे तन छुपे काहे फांके चूल ||

मन की नाव डोली फिरे, छोर नज़र ना आये |
राजीव छोर भीतर छिपा काहे तू ढुढन जाये ||

नारी को ना समझो तुम नारी है कितनी कमज़ोर |
नारी से ही नर जन्मता नर की शक्ति उसमे जोड़ ||

दर्द का मर्म ना जाने कोई हर ज़ख्म से इसका रिश्ता है |
कभी हलक से कभी पलक से पल पल पल पल रिसता है ||

मूक रहो तो जग समझे कितना तुमको ज्ञान |
राजीव मुख खुलते ही खुले अज्ञानी को ज्ञान ||

मुस्कराहट तेरा क्या कहना |
स्वर्ग का एहसास तेरा बहना ||

धरती को तुम जितना खोदो जितना छेदों
कुछ ना कुछ ये देती है |
राजीव जाने का समय जब आये तो देखो
बाँहों में  भर लेती है ||

सुई से तलवार तक क्यूँ कोई जान ना पाए |
शब्दों में है क्या छुपा जो घाव गंभीर बनाये||

किती मानव भूल करे जोहे मौत की बात
मौत तो वाके संग रहे रूप बदल कर ठाट |
रूप बदल कर ठाट कबहू झटक दबोचे तोकू
राजीव समझ यह सच अगर समझे तोकू ||

मेरी (बूंद) क्या बिसात जो सागर से मुकाबला करूँ |
पर सागर रखे ज्ञात मुझ बूंद से उसका अस्तित्व है ||

कैसा ये मोड़ आया
जिंदगी हो गई खड़ी
दूर होती जा रही
रिश्ते की हर लड़ी

मौत जिंदगी को तू कब तक यूँ  ढोना चाहेगी
समय समय पर उसको छध्म बाग़ दिखाएगी
बेचारी जिंदगी तेरे चुंगल से कब छुट पायेगी
राजीव एक दिन ये स्वयं ही मौत बन जायगी

छदम भेष धारण किये, जन्म हर पल हमे ललचाये |
कभी ये जीवन कभी ये रिश्ते जोडन को मचलाए||

चक्षु घुमे चहुँ ओर देखे दुनिया सारी|
क्यूँ ना देखे तन जामे चक्षु उभारी||

राजीव देखे जग को जग कबहू अपना होई |
एक बार कर आँख बंद जग एक सपना होई ||

महक महक की सुनो कोई ज़ुबां नहीं होती
महक महकेगी कहाँ यह कभी नहीं कहती

थुल थुल बदन को देख कर भ्रम ताक़त का होय
राजीव मांस की यह गाड़ी एक पल में माटी होय

प्रेम तुमको कब कहे करो तुम उनका बखान
  जो बखान करो प्रेम का वो हो व्यापार समान

सोमवार, 29 अगस्त 2011

मोक्ष

जीवन ने चाहा मोक्ष हो 
पर अभी कर्म कुछ बाकि थे 
मोह माया से मुक्त हम हो
पर प्रेम धर्म कुछ बाकि थे

एक छाया प्रेम की दिखी 
हम छाया के हो लिए 
छाया हमे छाया ही मिली 
हम आँख खुली सो लिए

अब जीतने की जीत में 
जो जीता हमने खो लिए
प्रेमधर्म सोचा था बाकि
जो था वो भी संग खो लिए 

मोक्ष की चाह बस चाह थी 
प्रेमधर्म की लुप्त राह थी 
जीता जो अपने दिल को 
पाया वो मोक्ष की राह थी

शनिवार, 27 अगस्त 2011

कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

सूरज की चमक है चहुँ ओर
दिखती है दूर कुछ अपनी ठौर 
पर ठोकर खाते हैं ये कदम
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै 

चलने से पहले था देखा भाला
बढ़ें जो कदम बिन रोड़ा छाला
अब जब डगमग से हो चलें 
कैसे कदमताल मिलाऊं मै 
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

नन्हे नन्हे थे जब अपने पग
चिंतामुक्त उड़ाते थे धूल तब 
अग्रज बताते उठाते चलाते सब 
वो अग्रज अब कहाँ पर पाऊं मै 
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

स्वयं ही मंजिल स्वयं ही कदम 
स्वयं का सपना स्वयं पायें हम 
छाप कदम की उन सब के लिए 
जो दिखाएँ राह कैसे उठाऊं मै
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

बुधवार, 24 अगस्त 2011

चमकेगा तेरा नाम रे

पंक्ति लम्बी, भीड़ बड़ी है
तुमसे पाने को वरदान रे
मै भी कुछ मांगना चाहता
मुझको समझ न ज्ञान रे
कोई कहता धन तू मांग
कोई वैभव का वरदान रे
मेरी बुद्धि काम न करती
हो गई बिलकुल जाम रे
मेरा नंबर जब आगे बढ़ता
मेरे घटते जाते प्राण रे
नंबर आया क्या मांगूंगा
गले में अटकी जान रे
एक आया मुझको समझाने
तू मांग अभय वरदान रे
सोचा जीना है अभिशाप
क्या करूंगा रखकर प्राण रे
तभी मेरा एक वंशज आया
बोला बन जाओ धनवान रे
धन रखना मुश्किल जग में
कैसे उसका रखूँगा ध्यान रे
अमीरी का झोंका भी आया
मांग तू रहना आलिशान रे
मेरा आधा अंग भी आया
बोला क्यूँकर भौतिक मांग रे
माँगना है तो तुम मांगो
रहे सदा प्रभु का ध्यान रे
जाना आना लगा रहेगा
ना जाए तुम्हारा नाम रे
ज्यूँ ही मेरा नंबर आया
कुछ न सुझा ज्ञान रे
बस मै झुकता चला गया
प्रभु दर्शन ही वरदान रे
बोले तू चतुर है प्राणी
जा कर अच्छे काम रे
चाहे जग में कुछ न चमके
चमकेगा तेरा नाम रे
चमकेगा तेरा नाम रे

शनिवार, 20 अगस्त 2011

यौवन तान

गदराया सा ये बदन
झील से गहरे नयन
सुंदर सुडोल यौवन 
डोलता डोले युवामन
खींचता मुझे हर क्षण
तोड़ने को सारे वचन

फूल की पंखुरी से होठ
गेसुओं सी नागिन चोट 
चाँद से चेहरे की वो ओट
तपती  साँसों की वो लोट
सुनाएँ मुझे एक ही तान 
आज तोड़ दे सारे वचन 

शनिवार, 13 अगस्त 2011

स्वतंत्रता दिवस

बो कटा का स्वर रह रह कर कानो मे पड़ता
बच्चे बड़े उत्साहित होते जब पेच कोई लड़ता
छते पटी पड़ी थी लगता कोई सैलाब उमड़ रहा
आँखे सबकी गगन देखे धरती ने ना कुछ कहा
छत के नीचे न कोई दिखे उपर सारा देश खड़ा
कोई सोचो एक बार क्या बिन छत है कोई पड़ा
रंगो का सैलाब गगन मे, पतंग थी रंग बिरंगी,
चिड़ा, डंडा, परी, दुरंगी, कंदील बांधे थी तिरंगी 
एक छत दो भाई उड़ा कर अपने को था काटता 
अजब किस्म का त्यौहार ये काटता ओर बांटता
बिन छत त्यौहार मनाता, छत देख ठोकरें खाता 
सूखे झाड़ चहुँ ओर घूमा वो गरीब पतंगे था पाता
कोई काटे कोई बांटे, कोई रंग बिरंगी दुनिया छांटे
१५ अगस्त कैसे भुलाए एक रात पहले घर जो बांटे
माँ, मौसी अलग हो गई, मिलना चाहे भाई भाई
आओ हम उसको ढूंढे, जो बढाता बीच की खाई
१४ हो या १५ या एक करती नयी तिथि कोई आए
एक हो जननी तब ही हम स्वतंत्रता दिवस मनाए      

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

जानो हम कहते हैं

आंधी चली धूल उठी
धरती धुलम धूल पटी
खड़े खड़े आँखे मलते हो 
चले चलो मंजिल पहुँचो  
तो जानो, मंजिल पाना इसे कहते हैं

प्रेम प्रेम सब कहते है
प्रेम की चाह में रहते हैं
नफरत की दुनिया में
पहल प्रेम की करके देखो
तो जानो, प्रेम प्रेम इसे कहते हैं

दोष दूजे में सब गिनते हैं
सीख देने को धर्म कहते हैं
आइना देख जो तुम झेंपो
उतार अपने अवगुण फेंको
तो जानो, सच्ची सीख इसे कहते हैं

अपना अपना क्यूँ कहते हो
जब एक परिवार में रहते हो
लाओ बाँटो सब रिश्तों में
चाहे ना पाओ तुम अंत में
तो जानो, परिवार इसे कहते हैं

अपना धर्म सच्चा कहते हैं
दूजे  धर्म को ना सह्तें  हैं
दूसरों के दुःख समझ तुम अपने
सारे सुख बाँट दुःख जो भगाओ
तो जानो, सच्चा धर्म इसे कहते हैं 

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

भेद प्रकृति

गर्मी पुरजोर बहता पसीना
लू के थपेड़े थपेड़  रहे थे
वृक्ष नहीं थे हिलते डुलते
पंछी सब खामोश पड़े थे

सूरज का था क्रोधित माह
धरती अग्नि के छाले पड़े थे 
ऐसे में चलना था कठिन
कपडे तन पर लिपट रहे थे

ऐसे में कुछ नन्हे देखो
नंगे पांव से दोड़ रहे थे
मौसम से वो अनजान
रुके वाहनों से चिपट रहे थे

उनके लिए नया नहीं था
लू चले, चले शीत लहर
बर्फ की वर्षा में बहे शहर  
या धरती पर टूटे कहर

लेट जमी पर खेल दिखाते
गोले में से थे आते जाते
विलासता से भरी गाड़ियाँ
बंद कांच में, दुरी बनाते

अनदेखा नन्हो को करते
नन्हे अन्दर की चाह बनाते
बिन बोले अन्दर क्या देखा
हँसते हँसते मांग रहे थे

कोई कुछ देता, कोई कुछ
कोई गाली से पेट था भरता
कोई आधा खाया फल देकर
अमीरी का था भाव बताता

अचरजी बात मगज को खाती 
क्या प्रकृति दोनों में भेद करती है  
क्यूँ लू बाहर वालों को कम
भीतर वाले को ज्यादा लगती है

क्या भूख बाहर वाले को कम
भीतर वाले को ज्यादा लगती है
क्यूँ छाले नंगे पावों में कम
जूते वालों को ज्यादा पडतें हैं

तुम भीतर वाले भीतर भीतर
क्यूँ घुटे घुटे दीखते रहते हो
बाहर वालों की देख हंसी
क्यूँ लूटे लूटे दीखते रहते हो

जिनके सहारे तुम जीते हो
उनपर भी जीना सीखो तुम
वो वो हैं तभी तुम तुम हो
अपना चीर सीना देखो तुम

बाहर भीतर के अंतर की
पीड़ा का अहसास होगा
बाहर दुखी हंसी तुमसे अच्छी
तुमको दोनों का पास होगा

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

ये कैसी शांति है

हर ओर क्रांति  है
ये कैसी शांति है

कितना कर्कश शोर है
यह भीड़ किस ओर है
बचाओ बचाओ की आवाजें हैं
चुनाव में हुई जीत के बाजें हैं
आवाजों में रुदन ओर हंसी
ये सच है या फिर भ्रान्ति है
ये कैसी शांति है..............................

ओजोन परत में छिद्र है
धरती पर त्राहि त्राहि है
सुखी गंगा सुखी जमुना
सूखी सूखी धरती सारी है
जल बहता रहता कल कल
क्या ये रतिली भ्रान्ति है
ये कैसी शांति है................................

पत्र प्रकाशित हुआ
आओ बचाएँ देश को
जल बचाएँ थल बचाएँ
और बचाएँ वेश को
पर नजर में आ रहा था
जो मन में समां रहा था
जैसे लिखा हो वहां पर
हर खबर की दास्ताँ पर
राड़ बचाएँ द्वेष बचाएँ
और बचाएँ ठेस को
अस्त्र बचाएँ शस्त्र बचाएँ
बचाएँ दोगले भेष को
राज बचाएँ ताज बचाएँ
चाहें बेचे अपने देश को
कुर्सी खींचें साड़ी खींचे
खींचे माँ के केश को
मंदिर मस्जिद सब तोड़े
तोड़े हर परिवेश को
भाई भतीजावाद फैलाकर 
जाती पाती का भेद बताएँ
आओ अपने घर को आग
अपने चिरागों से लगवाएं
हर उस सपने को लूटें
जिसमे मिलती शांति है
क्या ये गहरी क्रांति है
ये कैसी शांति है

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

उलटी चलता राह

क्या सीधा रास्ता रास न आता
क्यूँ उलटी चलता राह तू
पर्वत गिराए  घाट में
क्यूँ पर्वत चढ़ता घाट से तू
दोस्त दुश्मन बनते देखे 
दुश्मन को दोस्त बनाता तू 
लोग हमेशा चढ़ते देखे
क्यूँ उतरता जाता तू
पैसा सबका पीर है
तू पीर पे पैसा बहता है
घर उजाड़ कर दूजे का
अपना घर बनाते, सब दिखे
तू एक निराला है, राजीव
घर अपना ही उजाड़ता  है
सब रात में करते, घर में गंद
तू रात में घर बुहारता है
लोग एक भला कर गाते है
तू कर के क्यूँ छुप जाता है
सब ज्ञान के प्रवचनों से
भंडार धन का भरते है
तू धन अपना ही लगवा कर
ज्ञान के चक्षु खुलवाता है
सब सुख पाने को लोग देख,
हर हथकंडा अपनाते है 
क्यूँ पगले छोड़कर तू सुख अपने
दूजे का सुख ही चाहता तू     

लोग बावला समझ छोड़ देते है
जो ऐसी राह अपनाता है
पर ऐसे पगले सर माथे
जो उलटी राह अपनाता है

रविवार, 17 जुलाई 2011

अहसास अपने पास

आश्चर्य हुआ जब पाया एक अद्भुत अहसास
जिसको समझे एकांकी, ये भी था अपने पास

न थी वर्षा न सूरज की तपस मे दम
फिर भीगे कैसे हम
पाप का घड़ा जो दीखता न था
फूट चूका था
तन का हर अंग सराबोर हो उसमे
डूब चूका था

चक्षु मेरे ठीक ठाक हैं
पर अंदर कुछ रीड्कता रहता है
ये है मेरे अपनों का सुख
जो आँखों को न भाता है
अंदर ही अंदर घाव बन
अँधा हमे कर जाता है

सब कुछ पाया खूब कमाया
इतना की रख भी न पाया
आज चले जब अपनी राह तो
गठरी अपनी खाली थी
यहाँ का वहां काम जो आवे
बस वो नौकरी न ली थी

पढ़ते थे खूब प्रपत्र लिए
जो था पढ़ा बस उस संग जिए
आज जो पाया
वो था बोया
आदर, प्रेम, शील और मित्र
ये न थे अपने चरित्र   

घुटने अपने छिले पड़े थे
ये घाव पता नहीं कब मिले थे
अब ये जब नासूर बने है
सहने को मजबूर बने हैं
राजीव गिरे रहे जीवन भर
घाव बदबू उगल रहे थे 

शनिवार, 16 जुलाई 2011

बम धमाके, आतंक

हजारों लोग हैं यहाँ
यहाँ है फिर भी सन्नाटा
अचानक रुक गई है जिंदगी
किसने है इसे बांटा

यहाँ से कौन है गुज़रा
जो उजड़ी है ये फुलवारी
किसकी है ये करतूतें
जो हो गई मौन किलकारी

ना समझो हमे यूँ कमज़ोर
क्यूँ ललकारते हो दम
आए जो तुम कभी सामने
पाओगे तुम दना दन दन

उठे जो गलत निगाहे
उस निगाह को फोड़े हम
कोई जो पुष्प तोड़े हाथ
वो हाथ ना छोड़े हम


आओ सबको बतलाएं
यहाँ हमने है क्या सिखा
हर जात के पुष्प को
अपने लहू से हैं सींचा

अगर जो याद है बाबा
तो कान्हा भी ना भूले हम
एक और शांति का पाठ
दूजा गीता का मंथन

पडोसी की निगाहें हमको
अब चोरी से बचाएंगी
भाई भाई को भाई
ना कोई भाई बनायेंगी

आज जो दूर हो हमसे
ना भूलो हो हमारा अंश
हमारी माँ सगी बहने
आज हम मौसिओ के संग

कोई जो खोट हो दिल में
उस खोट को खोलो तुम
वर्ना रिश्तेदारी भूल के
रिश्तो की जड़े चीरें हम

जब हम रिश्ते में भाई है
क्यूँ कर सोचे होए जंग
अगर जो खुल गई जंग
तो हम काम आयेंगे

अपने लहू से सींच कर
ज़मी को सुर्ख बनायेंगे
बोएँगे असला खेतो में
जो राजीव बम्ब कहायेंगे

हे प्रभु एक प्रार्थना है बस तुम देना ध्यान
ना हो जंग पैदा बम्ब इतना ही दो वरदान

बुधवार, 13 जुलाई 2011

चित्कार

चहुँ ओर भीड़ का सन्नाटा
अंदर क्यूँ चले चीख पुकार
जग खड़ा पर चुप्पी साधे  
ना सुनता मन की चित्कार 
असमंजस तन मन देखे  
किसे सुनाए भीतरी गुहार
चला  लिए चाह कांधे की
भिगो जिसे निकले गुबार
सोच तुमेह हम ज्यूँ आए
तुम स्वयं कर रहे पुकार
अपना मन अपनी शांति
खोज करूँ होवे छुटकार

सोमवार, 11 जुलाई 2011

साहित्य

गया था ढूँढने
लिखने को
मांग है जिसकी
बिकता है जो

क्या सोचा क्या पाया
जो पाया न ला पाया

साहित्य के नाम पर
वास्तविकता के दाम पर
ऐसे ग्रन्थ जिनका
न आदि था न अंत
अपना आधिपत्य जमा रहे हैं
उनके रचयिता
साहित्य के नाम पर
उन्हें भुना रहे हैं

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

बूंद ओस की मेरी कब थी

बूंद ओस की मेरी कब थी 
रात आई सुबह सरक गयी 
मै प्यासा सोचता रह गया
क्यों आई जग लज्जा गयी 

आई तितली छायी मंडराई 
पर मेरी वो भी हो ना पाई 
देख बगल में खिलता नया
झपक झपक  झपक गयी

खिली धुप में खिला यौवन 
पवन चली झुर झुर्रा गयी 
सांझ हुई अब सब चल दिए
पत्ती टपक टप टपका गयी  
 

सोमवार, 4 जुलाई 2011

मुझमे क्या है मेरा बताओ

मुझमे क्या है मेरा बताओ  

नैन चाहें देखना तुमको 
पास तुम आओ न आओ
कानो में घुली मिश्री तुम्हारी
तुम मूक रहो या गाओ

ह्रदय धडकता हर पल 
समक्ष रहो कहीं खो न जाओ 
जुबान खुले कहे बात तुम्हारी 
और कुछ कभी न सुन पाओ 

ओ मेरे इष्ट क्यूँ छुपे तुम 
मन मश्तिक्ष से साक्षात आओ 
तन राख आत्मा साफ़
मुझमे क्या है मेरा बताओ 
   
 

गुरुवार, 30 जून 2011

प्रकृति

मेरा स्थान हवाओं सा 
मेरी महक है फूलों सी 
मै चहका करता पंछी सा
रक्षक बन चुभन शुलों सी 
बन बन फैला वृक्षों सा 
आरक्षण, अन्तरिक्ष सा
मेरी निर्मलता जल जैसी 
मेरी मिठास एक फल जैसी 
मेरी ममता में धरा गुण 
मेरी चाहत सरगम धुन 
तीखी किरणे सूरज सी 
शीतलता चंदा मूर्त सी 
तुम पूछते मेरा परिचय 
में प्रकृति डोलूं झूलों सी

रविवार, 26 जून 2011

दरिया लेखन

इतना कह गये कहने वाले 
सोच को यहाँ आराम कहाँ
रोज लिखे जा रहे गीत नये 
कलम को यहाँ विश्राम कहाँ 
शब्दकोश में शब्द हैं सिमित 
पर विभिन्न अर्थ खदान यहाँ 
बहता दरिया लेखन सदा बहे
सड़े लिखा जोहड़ नाम कहाँ 

   

गुरुवार, 23 जून 2011

सीमा

झुकना मुझे सिखाया था 
धरा ने बांधी थी सीमा
ऊँचा उठने की चाह थी 
गगन ने बांधी थी सीमा 
चलना मुझको तेज था 
समय चला बांध सीमा 
खुशबु जो फैलानी चाही 
हवा चली तोड़ सीमा  
सीमा जो जाननी चाही 
नजर नही आयी सीमा 
   

मंगलवार, 21 जून 2011

नई कोपल

माली को खबर 
फूल मुर्झा रहे हैं
पतझड़ आया 
पेड़ पत्ते टपका रहें हैं

अब समय 
नई कली संग कोपलों का 
पुराने समय से 
जा रहें हैं
 

शनिवार, 18 जून 2011

नासमझी हम नासमझ

सभी सीख हमें देते
नासमझी हम नासमझ 

सूरज कहे चलो समय रौशन 
चंदा शीतलता 
धरती ममता 
गगन समेटे 
तारे झिलमिल चादर बिछाये 
वृक्ष छाँव  संग फल दे जाए

पुष्प चाहे सब खुशबु में मुस्काय
जल जीवन का यूँ चलन 
पवन छुपी सब जग जाए 
अग्न लग्न को एक बिंदु 
भड़के सब लील जाए     

सभी सीख हमें देते
नासमझी हम नासमझ 
और कौन समझाये

शुक्रवार, 17 जून 2011

कोई नही चाहता

लिखना तो सब जानते हैं
लिखना कोई नही चाहता
दशा दुर्दशा सब है अनुभव 
बाँटना  कोई नही चाहता 
फसल संग खरपतवार खड़ी 
छांटना कोई नही चाहता 
घर में जो गंद बदबू उठा रही 
झाड़ना कोई नही चाहता 
रेशे सन के टूट रहें हैं घर के 
बाँटना कोई नही चाहता 
लड़ते लड़ते जीते जाते सब 
टालना कोई नही चाहता 
रेत की बुनियाद दुश्मन रखे 
रेतना दुश्मन कोई न चाहता 
आज फैली मोतिओं की माला 
पिरोना फिर कोई नही चाहता 
चाहत कहते सब फिर रहे 
जानना कोई नही चाहता       


शुक्रवार, 10 जून 2011

रवि तक न पहुंचे कोई मैंने वो राह भी जोई

मेरा एक अनुभव अनोखा 
आपने न सुना 
पर मुझे मिला मौका 
दिन में आँखें खुली पर स्वप्न एक आया 
और खुद को एक अजीब लोक में पाया 
स्वर्ग या नर्क 
ये अभी तक समझ नही आया 
आमने सामने दो महल जैसे खड़े थे 
और दोनों ही में तीन तीन फाटक जड़े थे 
दोनों महल जैसे अलग अलग धर्मो के 
जुड़े हुए मकान थे 
शायद कौमी एकता की अजब पहचान थे 
एक पर जहन्नुम HELL और नर्क नाम के फाटक 
दुसरे पर जन्नत HEAVEN और स्वर्ग नाम का फाटक
न कोई आता दिखा न कोई जाता 
बस चारों ओर था अजब सन्नाटा 
अचानक रामलीला की वेशभूषा में 
एक पात्र दिखाई दिया 
कौताहल वश पूछ लिया 
ये स्थान कौन सा है जिसने मुझे भटका दिया
उसने कहा
आप कर्म और कुकर्म के बीच पड़े हैं 
आपके दोनों ओर
इंद्र महल और यम नगरी खड़े हैं 
पर भाई 
दोनों ओर जाने को धार्मिक रास्ते 
ताकि इन्सान यहाँ आकर न लड़ें इस वास्ते 
रास्ते यहाँ तीन तीन हैं 
पर सब एक के अधीन हैं 
यहाँ पर क्यों इतना सन्नाटा 
क्या भी कोई धार्मिक चाँटा
ओ मेरे प्रश्नों के व्यापारी 
लो शंका दूर करूँ तुम्हारी 
बहुत समय से
इंद्र के कुछ बंधक राक्षस भागे हुए थे    
उनके कुछ अंश एक ही जगह मिल गये हैं
उन्हें ही देखने सभी एक जगह एकत्रित हैं 
जो पाए गयें हैं उनमे प्रमुख हैं
भ्रष्टाचार अत्याचार कामुकता झूठ 
चोरी धोखा कपट छल और लूट
बाकि अभी भी धरती के दुःख हैं 
आज इनके अंश कुछ विशेष के पास हैं
और जिन्हें घेर के लाया गया है 
एक ही के पास हैं 
एक ही के पास ?
हाँ भाई हमे भी न दिखाई देता 
अगर न मरा होता धरती का नेता 
तुम एक सीख लेलो 
नेता से बचो बाकि सब झेलो 
मैंने जो सर झटका दिवार से टकरा गया 
और मै होश में आ गया    

बुधवार, 8 जून 2011

अकेले भले

पौध लगी                         
या 
बीज लगा 
पानी खाद 
लगी लगी न लगा न लगा 
अपनी राह 
बढ़ता रहा
हुआ जवाँ
फल फूल छाँव
जिस लायक था 
दिया बिना भाव 
सहे चाहे घर्षण या घाव 
न दुश्मनी न दोस्ती 
दीमक चाटी 
या 
लता प्रेम से लिपटी 
उम्र हुई चली चले 
भीड़ से अकेले भले

मंगलवार, 7 जून 2011

चेतना

रात की खुमारी में 
कोयल सी घंटी टूनटूनाई   
समझ गया  
तुम आई 
तुम हर दिन 
दुल्हन की तरह 
सजी हुई आती हो 
सोतों को जगाने 
और मै 
जागते ही 
दिनचर्या में खो जाता हूँ  
जब होश संभलता है 
तुम जा चुकी होती हो 
और मै फिर सो जाता हूँ
एक शंका 
जिस दिन से तुम न आई
उस दिन से 
दिन न निकलेगा 
और 
जहान सोता ही रह जायेगा    

रविवार, 5 जून 2011

मकड़ी

मकड़ी तनिक समझा हमे 
कैसे बुना तुने ये जाला
अकेले लगी रही तू बुनने 
बुन डाले मोड़ संग आला
तेरी बुद्धि को हम सराहते
लगी रही लगन के रास्ते   
फंसने वाला न बाहर भागे 
कितने करीब रखे ये धागे 
मेहनत करना तुझसे सीखे 
सभी जोड़ मोड़ एक सरीखे 
तेरी कला का नही है सानी
जोड़ लगे पर गाँठ न जानी
बिन गांठ के तोडा जोड़ा 
हमे भी समझा तू थोडा 
अपने भी जब तोड़े जुड़े 
गांठ हमेशा ही बीच पड़े 
तुझे गुरु बना हम पूजें 
बता गांठ न हो एक दूजे     
मकड़ी तू तो मकड़ी है 
बुद्धि मानव से तगड़ी है

शनिवार, 4 जून 2011

जीवन तू सागर न बन

जीवन तू सागर न बन 

सागर हर वस्तु से खेलता 
जिधर का रुख उधर धकेलता 
पर मेरी नौका के आगे 
सागर बेबस हो जाता है 

जीवन तू देख सम्भल जा 
हठ न कर धकेलने की 
मुझ जैसे विरले मिलेंगे 
न चाहें जीवन ठेलने की

जब तक मै था बिन नौका 
तुने खूब धकेला था 
अब मै नौका में चप्पू थाम
निश्चय कर अपना आया हूँ 

तेरे अटखेलिओं के संग 
स्वयं को न बहने दूंगा 
तू दिशा रहित बिन मंजिल के 
उस ओर नही बढने दूंगा 

तू मेरा जीवन है 
तुझे चलना होगा संग मेरे 
दृढनिश्चय मेरा मंजिल का  
तुझे बढना होगा संग मेरे 

जिस नौका की चाह थी 
वो नौका नाम दृढनिश्चय
ठान लिया तो ठान लिया
अपना ये छोटा सा परिचय

सागर खामोश बस हाथ मले 
जब पतवार लहर विरुद्ध चले 
जीवन तू सागर न बन 
वरना जीवन, जीवन से हाथ मले  

गुरुवार, 2 जून 2011

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

बादल काले हो चले बोझिल से पानी भरे 
गहन धुप घर चली साँझ को चाबी दिए
अब जलने लगे हैं चूलेह धुंए बतला रहे 
पर मेरे चूलेह को लिपटने चिंगारी न आई 

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

स्वप्न का ताना बुन आँखों में नींद समाई 
सोई तो भी पर घर स्वप्न से न भर पाई 
बैलों की जोड़ियाँ चली ले हल खेत जोतने 
नसीब में सब लिखा पर बीज न लिखा पाई 

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

लाडो सयानी हो चली ब्याहने का पंचांग लिए 
न्योते आने लगे सभी हम उम्र दरवाजों से
डोली उठने लगी सूरज की किरणों से पहले 
सूरज जग गया पर बेटी भाग्य हल्दी न आई    

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

जिस रास्ते सब चले पथरों को तोडा था मैंने 
लोहे ने सींच कर पत्थर जोड़ रास्ता बनाया
पत्थर टूट कर जुड़ गये गाँव शहर हो चले 
अपने भाग्य का पत्थर न तोड़ कर जोड़ पाई   

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई  

बुधवार, 1 जून 2011

कलम कवि की

जी चाहता है उन पर लिखूं 
जो अपना देश चलते हैं 
जनता की बर्बादी पर 
धोखे के आँसूं बहाते हैं 
पर ज्यूँ ही लिखने बैठा
कलम की नोक टूट जाती है 
यदि बदलता हूँ कलम 
स्याही तभी सूख जाती है 

इस अचरज पर अचरज कर
मैंने एक अध्ययन किया 
एक शिक्षा है जो मैंने पाई 
गाँधी बन्दर मुख पर हाथ 
कलम कवि की सच चलती 
झूठ चाहकर भी न लिखती 
चरित्र यदि समक्ष खड़ा हो 
स्वयं ही चलती जाती है 

मेरे चुने श्वेत वस्त्र धारकों 
चाह कर भी न लिख पाउँगा 
यदि कलम के विरुद्ध चला 
कलम से विमुक्त हो जाऊंगा 
कलम बिना जीना कठिन  
जीते जी भी मरा कहलाऊंगा  
तुम्हारे बिना कुछ न घटता 
विरह कलम न सह पाउँगा

मंगलवार, 31 मई 2011

दर्शन दो हमें श्याम जी

राधा हो चाहे मीरा हो
या हो बंसी श्याम की
तीनो ही ना हमें सुहावें
तीनो ना किसी काम की

राधा मीरा कुछ न कहती
बंसी अधरों पर ही रहती
कैसे कोई सुन पाये बोलो
बोली अपने श्याम की

तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

हमको है अब श्याम से कहना
श्याम संग अब हमें भी रहना
वरना त्याग अन्न जल हम  
छोड़ें अपने प्राण जी

तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

गीता का उपदेश ना भूले
प्रेम का सन्देश ना भूले
तीनो का हम भेद करे ना
दर्शन दो हमें श्याम जी

तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

मीरा ने दीवानी बनकर
राधा ने सयानी बनकर
बंसी ने अधरों पर जमकर
पाया तुमको श्याम जी

तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

हर पहर में तुमको जपते
दर्शन को हैं हम तरसते
तीनो से जो तुम थक जाओ
आओ अंगना श्यामजी

तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

तीनो चाहो आदर अपना
पूरा कर दो हमारा सपना
एक बार श्याम को बोलो
सुन ले हमारी आस भी

तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

तीनो को हम पूजें तब ही
आप संग घनश्याम जी, नही तो


तीनो ही ना हमें सुहावें, तीनो ना किसी काम की

रविवार, 29 मई 2011

क्यूँ एक ही सपना

मै एक अनोखा हूँ व्यापारी
चाहे खरीदों या तुम बेचो दमड़ी एक न जाये तुम्हारी
आओ पहले तुमेह दिखायुं मै अपना सामान
पसंद आये तो खरीदना वरना बढ़ाना ज्ञान
ये है मेरा गौदाम
सभी तरफ यहाँ धुल पड़ी है मकड़ी तक चुपचाप  पड़ी है
माल रखता हूँ बहुत पुराना अगर पसंद हो तो ले जाना
इन वस्तुओं का दाम न लूँगा, न बरता तो वापिस लूँगा 
इसलिए बरतो तब ही लेना वरना रखा यहीं छोड़ देना

ये देखो ये है सत्य
बहुत ही कम उपयोग में आया, मैंने युधिस्टर से था पाया
इधर देखो ये है आदर,
कुछ दशक ये खूब चला है मुझे दशरथ महल के बाहर मिला था
इस तरफ है माँ की ममता देखो
जितना पूजो कम न होगी
तुम थक जाओ, हो सकता है पर, इसकी आँखे नम न होगी
इसमें देखो ध्यान से, हर डिब्बे में अलग रस है
जीवन इन संग जी के देखो, रस में महकता पाओगे
बिन रस जीवन जीने में, तुम नीरस हो जायोगे
इधर देखो, ये है गुरु की मूरत
इनको देखो ध्यान से, भरा पड़ा हैं ज्ञान से
इनको हम कहते थे रिश्ते
चोट तुमेह लगती थी पर अंग इनके रिसते थे
आज ये तुमेह ढूंढें न मिलेंगे, ले के देखो परिवार बनेगें

अरे, मै ही बोलता जाता हूँ, तुम क्यूँ इतने चुप हो गए
जो पसंद है ले लो भाई, दाम न तुमसे कुछ लूँगा
बस एक पर्ची पे लिख देना
तुम मिटते मिट जायोगे, पर इनमे से किसी को भी धुल का फूल न बनाओगे    

क्या हुआ तुम गुम  हो गये, लगता है माल नहीं भाया
साथ वाली भी अपनी दुकान है, वहां है माल नया आया
मुझमे ज्ञान की थोड़ी है कमी  मेरे पुत्र ने ये संभाली है
पता नहीं क्या रखता है सुबह भरता शाम को खाली है

बूढ़े, तुम इधर से आना, उधर कहीं कुछ टूट न जाये
माल आया है अभी ये ताजा, जल्दी ही बिक जायेगा
तुने तो कुछ नही बनाया मैंने देख इसे देख कहाँ पहुँचाया
बोलो बाबु, क्या दिखायुं, समय न मेरा खोटी करना
जो है, जैसा है बस है, लेना हो तो बोलो, वरना अपना रास्ता लेना
हर रोज का दाम अलग है, डॉलर के साथ बदलता है  
मोल भाव यहाँ नहीं  होता है दाम एक ही रखता हूँ,
माल की मांग इतनी है कि हर रोज का ताजा रखता हूँ 

आओ दिखाऊं, ये झूठ है फरेब है
जो भी चाहो ले लो भाई दाम बहुत ही तेज है
इसको कहते बदनामी, नाकामी संग मुफ्त है
इसको देखो माँ की ममता, कपूत चुस्त, ये सुस्त है
इस छुरे की धार तो देखो पीठ में सीधा जाता है
बस देखते जाओ बाबु अब इसका राज ही आता है
इधर ये भ्रष्टाचार खड़ा है, आज न कोई इससे बड़ा है
ये ही पकड्वाए, ये ही छुड़वाए, इसका बड़े बड़ों से नाता है
जो चाहो वो बतलाओ, "हो जायेगा" के नारे में ये सारे काम करवाता है
ये देखो, ये कातिल रिश्ते
माँ-बेटा, पति पत्नी और कहने को बहिन भाई है
पर इनमे किसी की न बनती, कल ही संपत्ति बटवाई है
कुछ लोगे भी या देखोगे, बिन पैसे बस आँख सकोगे
चलो तुमेह नई चीज दिखायुं
ये देखो ये है "लालची का लालच" जिसने है आतंक मचाया
कई घर उजाड़े, कई देश खाए, ये रहता अपना बिगुल बजाये
बाबू जाओ, धंधे का समय है,
जो लेना हो दाम लिखा है, चुकाना, ले लेना
यदि ले जाने मै हो लाचारी हम उसका रास्ता बताते हैं
आप जब तक घर पहुँचो हम माल घर तक पहुंचाते हैं
माल सारा विदशी है अपनी न कोई जवाबदेही होगी
माल मिलेगा तभी, जब पहले पूरी कीमत अदा होगी

तभी मेरा सपना सा टूटा, बिस्तर से नाता छुटा
बेटा  मेरा पास खड़ा था, वो मुझसे लिपट गया 
बोला बापू क्यूँ एक ही सपना तू देखा करता है 
अपने लहू पर भरोसा रख तेरी राह ही चलता है 
मै तुझे लिख कर दूंगा, तब विश्वास हो जायेगा  
दूसरी दुकान न खोलूँगा पुत्र तेरा व्यापार बढ़ाएगा 
चाहे भूख से हम मर जाएँ, सर न कभी झुकने देंगे,
जिस माँ की कोख से पैदा हुए उसको न लज्जायेंगे   

गुरुवार, 26 मई 2011

सौदा

जीवन जीता जाता हूँ
जीने का पर समय कहाँ 
स्वछन्द हवा के झोंके 
सूरज की किरणों के पथ 
सागर कहता गोते खा 
चाँद चांदनी के पथ से 
गगन तारों की चादर से
धरा मौसमी फुआर से
बुलाते सब बिन चाहत   
अंतर्मन तड़पता रहता 
सभी पुकारें बिन लागत   
मुझको संग चलने को 
पर मै सौदा करता हूँ 
मुफ्त का सौदा समय नही

मंगलवार, 24 मई 2011

सब यहीं

घने वृक्ष 
छाँव नही 
चौपड़ है 
दाव नही 
माझी खड़ा 
नाव नही 
गहरी नदी 
जल नही
दल हैं 
बल नही 
जल है 
नल नही
मन्दिर है
भगवान नही 
दुखते हैं 
घाव नही 
बस्ती है 
इन्सान नही 
इन्सान दिखें 
इंसानियत नही 
हैवानियत दिखे 
हैवान नही 
शव दिखे 
मसान नही 
रात दिखे
भौर नही 
जग दिखे 
जगे नही 
लाचारी है 
लाचार नही  
एक है 
एक नही 
आओ ढूंढे 
फिर कहें 
सब यहीं 
नहीं नहीं

सोमवार, 23 मई 2011

तन्हा

तन्हा रहने की चाह थी 
तन्हा नही रह पाए हम 
तन्हाई की तलाश लिए 
तन्हाई तलाश लाये हम 
तुम बसे हो हर कतरे में
दिल में हो सबसे करीब
तन्हाई में भी तन्हा न हैं 
यही अपना अपना नसीब
साथ हर वक्त है तुम्हारा 
क्यूँ हो तन्हा खुशनसीब 
लोगों से कहते सुनते हैं 
तन्हा रह गया राजीव 

शुक्रवार, 20 मई 2011

चलो मिलकर गाएँ हम

नन्हे मुन्ने बच्चे बैठे कथा बांचने ज्ञान की 
पढ़ लिख कर नाम करें शान हों हिंदुस्तान की
हिंद की शान हैं हम, चलो मिलकर गाएँ  हम 

माँ बाप की पूजा करें, जो लाये हैं हमे जहान में 
वन में भटके राम जहाँ, पितृ वचन के मान में 
नचिकेता यम ललकारे, दिया  पिता ने दान में 
होलिका, प्रहलाद जले, पर राख हुई अभिमान में   
कण कण से इतिहास कहे, बाते स्वाभिमान की 
नन्हे  मुन्ने  बच्चे  बैठे  कथा  बांचने  ज्ञान  की 


हिंद की शान हैं हम चलो मिलकर गाएँ हम 


भांति भांति के लोग यहाँ पर, एक संसार बसातें हैं 
भाषा चाहे अपनी अलग,  जन गण  सुर में गाते हैं 
त्योहारों की हर ख़ुशी, हम मिल कर संग मनातें हैं 
पूजें पत्थर पुस्तक संग, हम वन्दे मातरम गातें हैं  
माटी अपनी सुर्ख अभी भी, कथा कहे बलिदान की 
नन्हे  मुन्ने  बच्चे  बैठे,  कथा  बांचने  ज्ञान  की 


हिंद की शान हैं हम चलो मिलकर गाएँ हम


कश्मीर से कन्याकुमारी रिश्ते नाते बस्तें हैं
एवरेस्ट पर जाकर भी हम अपने झंडे कस्तें हैं  
गंगा यमुना जैसी नदियाँ माँ बन पूजी जाती हैं
धरती की रक्षा कर नारी लक्ष्मीबाई कहलाती  है
मोर, शेर और कमल हमारे सम्पदा हैं राष्ट्र की  
नन्हे  मुन्ने  बच्चे  बैठे,  कथा  बांचने  ज्ञान  की


हिंद की शान हैं हम चलो मिलकर गाएँ हम