रविवार, 29 जनवरी 2012

मंजिल है दूर

पथ पर निकला एकांकी संग ले चला बीती झांकी
जब थकन एहसास हुई तुम तभी से मेरे साथ हुई
उस क्षण जो तुमने बोला कानो में था मिश्री घोला
थकन गई किस राह निकल पता चला नही बोला
हर पथ पर मिलनेवाला मेरी ओर देखता तुम पर
तुम बस एक मुस्कान फैला हर लेती गुमसुम पर

हर राहगीर न पाता होगा हमसफर जो हो तुम सा
तभी तो मंजिल दूर लगे उन्हें जिसे पा लें  हम सा
ये जीवन की लहरें हैं उठा पटक ले झपट हमे चलें
जो न हो हमसफर तुमसा मंजिल है दूर अभी खले
अरे पथिक सम्भल पहुंच कर मंजिल के तू निकट
रेतीली भ्रांतियां कर रही राजीव का पथ और विकट

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

नैन मुस्काएं

मेरे क्यूँ नैन बहते हैं कोई तो आकर ये पूछो
तड़प कैसी जगी इनमे कोई उठा कर तो पूछो

ये चाहते गुनगुनाना है किसे पर ढूंढ़ते हैं ये
सरगम यूँही छिड जाए जो तुम आकर ये पूछो

दिखे जो ग़म तुम्हारे संग तो कैसे नैन मुस्काएं
दुआ  बस तेरी खुशिओं की खुदा से जाकर ये पूछो 
     
घर दर की इन्हें चाहत कोई कान्धा नही मिलता
ये चाहते हैं ठहर जाएँ अगर मुस्कुरा के तुम देखो

प्यार में छलछला जाते ख़ुशी अपनी दिखाने को
अगर यकीं नही तुमको प्यार लुटाकर तब पूछो
 
वफा से पहले लगे बा या लगे बे के बाद वफा
एक से जिंदगी मिलती दूजी से तबाह समझो  

प्यार की बेल को देखो दिनोदिन बढती जाती है
बिना ही खाद और पानी, ज़रा लगा के तुम देखो
 
सागर में तरसता सीप बूंद एक मीठी पाने को
मोती हर बूंद बन जाये तड़प जगा कर तो देखो 
 
मेरी दीवानगी हद ने मुझे जला कर रखा है
चाह थी चाँद पाने की छुपा सूरज ने रखा है

सोमवार, 23 जनवरी 2012

कुर्सी

जब आम आदमी था मै  
सब मेरे मै सबका था
याद मुझे वो दिन आता 
कुर्सी पाने मै लपका था   

जब से कुर्सी चाही मैंने  
बस कुर्सी ही चिपक गई 
सीढ़ी जो उपर ही लाती
चढ़ते ही वो खिसक गई 

अब न मुझको तुम दीखते 
न मुझ तक पहुंचें आवाजें 
कुर्सी वालों की दुनिया मै 
जनता के हैं बंद दरवाजे

कुर्सी की चाहत में जीना
कुर्सी की चाहत में मरना
कुर्सी पाने की चाहत में
दंगे, संग गाली और धरना
     
कुर्सी वालों की दुनिया में
अपने पराये का भेद कहाँ
नेकी से न कोई वास्ता
पर करते नेकी नेक यहाँ

साहूकारों की खिलती बांछे
जिनका मुझ पर दावँ लगा 
मेरी जीत में जीते हैं वो
आते पाते जाते आस जगा

जिनसे नफरत सदा रही 
वो द्वार बंधे यमदूतों से
कब किसकी आई लें चलें
हम जियें मरें यूँ भूतों से

राजीव क्यूँ चाहे कुछ करना
जब भरने का अवसर आया
तकदीर ने खोले सब ताले
भर,खाली बोरे,माणिक माया

शनिवार, 21 जनवरी 2012

आज हम आज़ाद हैं

आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं 
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं

तोड़ कर अपनी  गुलामी, पायी तोपों की सलामी
टप टपा टप टप टपा टप,  धुन सुनातें हैं सेनानी 
राजपथ पर आज उमड़ा, यह गज़ब सैलाब है 
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं

आज़ादी पाने का सपना पूरा कर वो लायें हैं 
खुद को खोया है उन्होंने आये उनके साये हैं  
कोख जिनकी जन्मे थे वो, हो गई आबाद है 
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं

नौजवानों कान खोलो जान लो करना है क्या
इस वतन की माटी से ये महके आज़ादी सदा
मिट न पाए नाम उनका तन से जो आज़ाद है  
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं

चंद गद्दारों ने अपने अपनों को मरवाया था
गद्दारी न हो वतन में जिसने सब गंवाया था
झुक गया था जो शर्म से, सर उठा वो आज है
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं

हिंद की माटी में देखो सोये माँ के लाल हैं
हिंद को है नाज़ जिनपर उनका अब अकाल है
आज़ादी की खुशबु पाकर हिंद मालामाल है
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं

लहलहाता है तिरंगा इठले जमुना इठले गंगा
एकता के सामने दुश्मन यूँ भागा हो के नंगा
देश के भविष्य तुम हो अब न हो बर्बाद ये    
आज हम आज़ाद बापू आज हम आज़ाद हैं


मंगलवार, 17 जनवरी 2012

पुरुषार्थ जगाओ

पुरुष हो पुरुषार्थ जगाओ
कह कर वो तो चले गए
बदला समय ना सोचा होगा
नारी से ही हम छले गए

पुरुष पुरुष सा दीखता ना अब
नारी चरणों में शीश नवा
बस ये जन्म सुख से बीते
दांत मुख भींच सहे गए

सावित्री सीता हुई धरा पर
सुखद पौराणिक हैं कथाएं
पर पुरुष संग या यम जंग
दोनों में नारी सम ही बहे

आज का युग नारी चरणों में
पुरुषार्थ पुरुषों का यूँ बहे
बदली विधि की लिपि यूँ
हर क्षण धक धक लगी रहे

जो बीत गया उनकी कृपा से
आने वाला भी सुखद भए
पुरुषों अब पुरुषार्थ जगाओ
छोड़ अहम मान जो नारी कहे
  
 

सोमवार, 16 जनवरी 2012

अपराजिता

करुणा
बन अपराजिता
अर्पण कर
समर्पण जगा
बेल सी लिपट
वृक्ष निगल गई     

बुधवार, 4 जनवरी 2012

आज का दिन मै कैसे भूलूं

आज का दिन मै कैसे भूलूं
जबकि मुझ संग तुम चले हो
आज का दिन मै कैसे भूलूं
जबकि मन संग मीत मिले हों
छाज सा जीवन छन रहा था
उसमे कुछ अंश तुम मिले हो
अनचाही अत्रप्त धरा पर
अधरों ने आकर पुष्प छुए हों
खो चूका था मायने जिनके
आकर तुम ने अर्थ दिए हों
बालक मन था भटका भटका
बाँहों ने तुम्हारी झूल दिए हों
आज का दिन मै कैसे भूलूं
जबकि मुझ संग तुम चले हो


 



मंगलवार, 3 जनवरी 2012

चंदा की चांदनी

उम्र का ये पड़ाव
उफनता शांत पडा था
अचानक जैसे चंदा को देख
उम्र छोड़ लहरें मिलने दौड़ी

एक बदली धुंधला कर गई
पर चमक यादें फिर लाई
तुम तो अब तक न समझी
पर लगता था उम्र लौट आई

जर्जर तन न था किसी काबिल
पर उसपर लौहा प्रहार कर सम्भालने वाला
स्वप्न जैसे तुमसे पुन साकार हुआ
एक चंदा की चांदनी बन तुम आई