बुधवार, 19 नवंबर 2014

खेल खेलें


आओ बच्चो खेलें खेल
एक बनायें ऐसी रेल
जिसका ईंजन अपना भारत
बाकी देश डब्बों का मेल

ऐसी पटरी सरपट दोड़े
नदी खेत गाँव पीछे छोड़े
निकली पाने मंजिल को वो
छुक छुक धड-धड का ये मेल

आओ बच्चो खेलें खेल........................

दुनिया वालों जानलो अब
हिन्द को पहचान लो अब
एक नंबर पर अपना भारत
बाकि देश करें रेलम पेल

आओ बच्चो खेलें खेल..........................

दोस्ती में हमसा ना संगी
त्यौहार मनाते रंग बिरंगी
एक जुटता का ये समागम
दुनिया में हमसा ना मेल


आओ बच्चो खेलें खेल....................

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

विडंबना

मानव सभ्य है या असभ्य
यदि सभ्य है
तो क्या ज़रुरत
संविधान और कानून की

यदि असभ्य है
तो क्या ज़रुरत
संविधान और कानून की

सभ्य समाज
संविधान, कानून
नियंत्रण और कचेहरी

अजब विडंबना है

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

हटे मेरी बदरी काली

ये ईद है तुम्हारी तुम्हारी है दिवाली
ऐ खुदा क्यों तूने मुझको कर दिया खाली खाली

बरसों से मेरे दिल में भी जलती थी फुलझड़ियाँ
पर इस बरस बुझी हैं मेरी चाहतों की लड़ियाँ
फूलों की महक सबकी पर मेरी डोली खाली
ये ईद है तुम्हारी तुम्हारी है दिवाली

ये जगमगाते आँगन त्योहारों की बौछारें
क्यों खुशियाँ रूठी मुझसे, जो अंगना ना बुहारें
दीये मेरे अबके सब तेल से हैं खाली
ये ईद है तुम्हारी तुम्हारी है दिवाली

सबको हज़ार खुशियाँ लीपे हैं दर सभी के
भाग्य है रूठा हमसे हम मर रहे हैं जी के
आस उनकी खुशियाँ बरसे हटे मेरी बदरी काली

ये ईद है तुम्हारी तुम्हारी है दिवाली 

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

बदबू

कल मैंने एक सपना देखा
जी हाँ मैंने सपना देखा

सपना कुछ अपना सा ना था
सपने ने सुख चैन छीना था

रह रह कर बदबू आती थी
नाक स्थान छोड़ना चाहती थी

उठा छोड़ अपनी चारपाई
खोजने बदबू कहाँ से आई

बदबू घराना जे जे बस्ती
गरीबी यूँ रहना हक समझती

ना बदबू वहाँ न हीं जात भाई
भौच्चकी आँखे इतनी सफाई

चकाचौंध चमके थी बस्ती
लगा रहे भगवान सी हस्ती 

सोचने को मजबूर हुआ
पर बदबू से ना दूर हुआ

नाक जिधर सड़ सड़ती थी
चाल उधर पग पग बढ़ती थी

आलिशान मकानों की बस्ती
पर बदबू से नाक और कसती

भीतर जायूं औकात नहीं
बदबू सहूँ कोई सौगात नही

इधर उधर देख पाया झरोखा
झाँका घबराया सोचा सच या धोखा

अर्धनग्न नर नारी
सभ्यता का माखौल बनाते
पाश्चात्य संगीत, एक हाथ गिलास
दूजे से कमर पकड़ मटकाते
आधे मुर्दा से झूम रहे हैं
पास रेंगते दिमागी कीड़े
दिमाग खराब कर चूम रहे हैं

कुछ लोगों को शक हुआ
मेरा डर से चेहरा भक हुआ

तभी हट्टे कट्टे मेरी ओर आकर
खड़े हो गये मुझे घेरे
हडकाते धमकाते कौन हूँ मै
पूछे कहाँ उनके राज हैं बिखेरे

जनाब मजबूर बदबू सूंघता यहाँ आया
पर महफ़िल और बदबू समझ ना पाया

बोला हमारे देश में यही तो हंसी की बात है
बदबू कहीं झाडे कहीं वाह क्या बात है

बरसों से भयानक बदबू के कीटाणु
हमारे पास कैद उन्हें कुछ होश कहाँ
जिन्हें तुम हो जो रोज झाड़ते झड्वाते
उनका न कोई कसूर नही कोई दोष कहाँ

मुझको तो दिखाओ मै हूँ आपका बंदी
भागूँगा नही मुझे घेरे आपके मुष्टंडे मुष्टंडी

बोले, देख हर कमरे में क्या क्या समाया है
बदबू किस की हर ओर जो तू देखने आया है

अराजकता, काला बाजारी, नकली दवाई है सारी
व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, मौत से है अपनी यारी
जितनी बदबू सब हमारी, बड़ी से बड़ी चोरियां सारी
अस्मत लूटें, हिंद को लूटें, लूटें यहाँ की सभ्यता सारी

तुम झाड़ो उठाये झाड़ू बिन जाने बदबू कहाँ से आ रही
जब भी तुम्हे पास पायें फैलायें ये महामारी, ये महामारी

मै घबराया जोश जगाया
छुड़ा कर भागा और चिलाया
हमे झाड़ू नही हथियार दो
बदबू मत झाड़ो मार दो

तभी मेरी माँ ने झकझोरा
दिन चढ़े क्यों चिल्लाता है
मैंने माँ को देखा और देखता रहा

कैसे कहूँ रात में भी सफाई करता रहा 

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

क्यों भूल गया जो था सहा


 मुझे याद क्यूँ ना कुछ रहा
भूल गया क्यूँ कल का सहा

पानी मे वो प्रतिबिम्ब था
प्रतिबिम्ब मुझसे कहा
जो तुझमे है वो उड़ेल दे
हर्फों के सबको खेल दे
तेरी वेदना या चेतना
उसमे हो तेरा लिखा सना
जो पाया मैंने संचय किया
लिखने बैठा जो था सहा
पर हाय रे यह क्या हुआ
फिर भूल गया कल का सहा
 
एक बार फिर एक राह दिखी
मरू मैं बैठा लिखने अपनी लिखी
अंतर्मन मैंने फिर छुआ
बचा कूचा रचने हर्फ़ नया
मरू की शांति संग थी
मेरी वो भ्रान्ति तंग थी
मै लिखता जाता हर कण में
वो छुपता जाता हर क्षण मे
मैं पुनः जो बैठा लिखने को
पर हाय रे यह क्या हुआ

फिर भूल गया कल का सहा

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

हाँ पुस्तकें पुरानी है

आज भीतर जब झाँका
धूल पुस्तकें दबा रही थी
उनमे छपी हर व्याख्या
डरी सहमी सी पड़ी थी

बाबा पुस्तकें पुरानी है
मै चौंका, आवाज़ सहम गई
माँ कहती है, धीमे स्वर बोला
बात संभाली और समझाई

बिलकुल नई बस थोड़ी धुल तले सोयी
भीतर छपे ज्ञान की परिभाषा न खोई   
कबाड़ी वाला इसका बस रुपैया देता है
वो कीमती ज्ञान नही बस वर्के लेता है
झुर्रियों संग इंसान रिश्ता न खोता है
पूत कपूत ही सोने के अंडे खोता है
लगातार उपयोग से रोज नया पाओगे
धुल के कण जो पड़े बुद्धि में
ला कबाड़ी अपनी प्रगति गंवाओगे 
सोचकर अब उपयोग नही
फटा पुराना मत ठुकराना  
झुर्रियां देख किसी को न सताना
क्योंकि आने वाले कल तुमेह उस रास्ते है जाना  

तभी मंझली एक कड़क आवाज भीतर से आई
दादा पोते हुए मौन करने लगे सफाई

मुख धरती को पुस्तक पर कपडा
चलो चलो धुल हटानी है
हाँ बेटा जल्दी इसे फेंको

ये  पुस्तकें बहुत पुरानी है