शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

नववर्ष

जो बीत गया वो अपना था
जो आ रहा  एक सपना सा
जाने वाले तुझे करते प्रणाम
आने वाला तुम हो मेहमान
जा रहा वो उसे दिली बिदाई
समस्त जन नववर्ष बधाई  


गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

राधे में

जो रम गया राधे राधे 
वो थम गया राधे राधे
गिरधर की मुरलिया न्यारी 
मोहन की मूर्ति प्यारी 
बांके को जिसने देखा 
सम्मोहित खड़ा सरीखा 
आँखे ने पल भी झपकी 
बस  खो गया राधे राधे   

कान्हा कान्हा का सुर है 
जो भटकाए आसुर है 
मेरे जीवन की नदी में 
कान्हा का पैंठा दर है 
कान्हा को रटते रटते 
रहूँ कान्हा के भंवर में    
कुछ और मुझे न सूझे
मै रम गया राधे राधे 


नैनो में वो है समाया
मेरे घट घट में वो आया
मेरी रग रग बहता जाये
मेरी जिव्या उसे ही गाये
मेरे नैन मूंद उसे देखें
तन उसी का नाम लपेटे
मुझे  चिंता  न  बीमारी 
मै गाऊं जो राधे राधे 

जो रम गया राधे राधे 
वो थम गया राधे राधे

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

कुछ ना पाया

अभी मरे कुछ वक़्त हुआ था, डरे डरे कुछ वक़्त हुआ था
कौन हूँ मै आया कैसे क्या होगा सोच जमा रक्त हुआ था
तभी किरण सी एक थी चमकी ध्वनि कानो में एक धमकी
सभी अपने पूर्व में जाएँ अच्छे बुरे का सब हिसाब बताएँ
मै अपनी यादों में खोया हिसाब किया क्या पाया क्या खोया
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया ...............

रातों को तो था मै सोया, स्वपनों में था सिर्फ खोया
पर जीवन में मानवता का बीज न बोया 
दिनों दिन भागा, सोया खोया, जागा भागा
चक्रव्यूह में गया फंसकर कुछ ना पाया बस भागा
सोचा जो क्या पाया क्या खोया
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया ..................

सभी तो थे, पर कोई ना था, सब कुछ था, कुछ ना था
जो जोड़ा था वो छोड़ा था, पर साथ ले जाऊं गुण थोडा था
खून के साथी साथ में ना थे, अवगुण थे गुण साथ ना थे
लकड़ी पाई अग्नि पाई, माटी माटी के संग आई
लोटा भर गंगाजल पाया, लगा मुझे क्यूँ था मै आया
सोचा जो क्या पाया क्या खोया,
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया..............

अब करने को हम ना थे, सहने को कोई ग़म ना थे
जो कुछ सहा सब छोड़ा छाडा, बस कुछ गज़ एक लट्ठा फाड़ा
सफ़र में चलने को त्यारी, कंधो पे थी पालकी हमारी
सब के मुख एक ही सुर था, अंतिम यात्रा का ये गुर था
कहने को सब अपने थे, जागे हुए कुछ सपने थे
अब आँख मिची हम जागे हैं, मरघट छोड़ सब भागे है
सोचा जो क्या पाया क्या खोया
आह सोचते ही सिर्फ रोया सिर्फ रोया............

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

साहित्य से नजदीकी

हम साहित्य की बात कर रहे थे
क्या होगा साहित्य का
यह सोच सोच कर डर रहे थे
कैसे बचाएं यह धरोअर इस उजड़ते समाज से
और कैसे अब बचाए इसे महा पंडितों के दाग से

अचानक विपरीत पक्ष से सवाल दगा गया

साहित्य किसे कहते हैं ?
जवाब दिया जिसके बलबूते हम सभ्य शिक्षा पाते हैं
जिसके कारण हम सबके हित की कहते, गाते हैं
जिसके रिश्तेदार अब जीवन के आखिरी पड़ाव में हैं
जो वयस्क हैं वो व्यवसायिक अंश के जकडाव में हैं

फिर सवाल आया साहित्य कहाँ है?
मै कहता पग पग में
अचानक पूछ लिया साहित्य को कहाँ ढूंढे?
महसूस करो हर पल में
 
वो बोले पहचान बताओ
हम बोले पहचान है तुम्हारी हर साँस
तुम्हारी जिज्ञासा तुम्हारी हर आस
उसे खोजने की चाह उसके लिए हर आह
तुम्हारे जीवन की प्रतिबधता समाज की कुछ बचीकुची सभ्यता
रिश्तों की धुंधली मिठास पत्नी के मन का विश्वास
बहन की राखी की लाज, पति का पत्नी पर नाज
पिता का पुत्र पर अधिकार माँ की गोद का अहसास
एक घर एक परिवार एक गाँव एक संसार और हर क्षण की प्यास
हर गीत हर संगीत धरती आकाश हर भीत और हर ओर की राह

अरे जहाँ चाहो वो मिलता है उसके बिना पत्ता भी ना हिलता है
इससे पहले कुछ और पूछे हम ताव खा गए
और कह दिया तुम जो बचे हो साहित्य उसका कारण है
अगर हम साहित्य के नजदीक ना होते तुम यहीं खेत होते

तुम चाहो भी तो लुप्त ना होगा छिपाओगे पर गुप्त ना होगा
सांसें चलती उसकी लय में संसार चलता उसकी शय में
अगर जीवन है तो साहित्य है अगर मरण है तो साहित्य है
साहित्य समय का हर चरण है हमने ओढ़ा वो आवरण है

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

आटा बिखर गया

सर्दी में था पसीने से नहाया
गर्मी में था खून भी सुखाया
तब था गरीब ने खाना पाया
एक थैली भर वो आटा लाया
अमीरी ठोकरों से विफर गया 
गरीब का ही आटा बिखर गया

रफ्तारी कार पड़े आटे गुजरी
आटे ने आंतरिक लहू उगला
कर्राहट कौम की थी चीख पड़ी
आटा पड़ा रहा, बिखर पगला
ऊँचे ह्रदय न कुछ सिहर गया  
गरीब का ही आटा बिखर गया

दो जून रोटी उसी आटे से होती
अट्टालिकाएं झोंपड़ी दोनों पोती
मानव ने मानव को जुदा किया
रोटी को ही रोटी से अलेदा किया  
क्यूँ आटा आटे को अखर गया
गरीब का ही आटा बिखर गया
   

   


रविवार, 11 दिसंबर 2011

कैसे चुकाऊं कर्जा


हे प्रभु क्यूँ इस जहान पर इतना अत्याचार किया
जनम दिलवा माँ बाप से सबको करजदार किया

कैसे कर्जा चुकाऊं मैं यह सोच सारा जनम गया
पर कर्जा माँ बाप का मेरे संग आया संग ही गया

तेरी लीला तू जाने राजीव ना पूछे यह सब क्यूँ किया
पर एक बात तू सच बता तुने तेरे कर्जे का क्या किया

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

पुलिस में नौकरी

हे प्रभु एक विनती है तुमसे
मोकु अगला जनम ना दीजो
अगर भाग्य में जनम लिखा हो
पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो

ना ही चाहूँ सोना चांदी
ना ही चाहूँ महल दुमहले
बस एक डंडा दिलवा दीजो
पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो............

चोर डाकू कोई पकडूं नाही
रोज मै पूजूँ अफसरशाही
चाय पानी लेकर छोडन का
मोकु लाइसेंस दिलवा दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो..........

अफसर बनना मै ना चाहूँ
कोई पदौन्ती मै ना पाऊं
पर मेरी नियुक्ति तो प्रभु
लाल बत्ती इलाके करवा दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो.............

रिश्ते नाते कोई ना चाहूँ
घरवालों की बंदिश ना पाऊं
चाहूँ तो बस इतना चाहूँ
बिन कटोरी बिन भीख के
मांगना मुझको सिखला दीजो

पुलिस में नौकरी दिलवा दीजो.........

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

जीवन चक्र

आत्मा के अमर होते ही
भस्म हो गया शरीर
संग पानी के डोलता फिरा
चंचल मानव शरीर

लिया इस जल को खींच
जड़ों ने, वृक्षों पौधों के
बदली भस्म पुष्पों फलों 
वनस्पतिओं में

भोजन स्वरुप वनस्पति को
किया ग्रहण दम्पति ने
यज्ञ किये शरीर में
आत्माओं ने

बदल रूप आई भस्म
रक्त मांस के लघु कणों में
जुड़े वो कण बिंदु
गर्भ के क्षीर सागर में

पुन रूप बदल आई भस्मी
लिए एक बालक का जीवन 

रविवार, 4 दिसंबर 2011

बेटी बिदा होती बाबू

अपने आंसुओं पर रखो काबू
आज बेटी बिदा होती बाबू
बचपन में खेली जिस अंगना
आज वो भी चला मेरे संग ना
कैसे पिया का चल गया जादू

छोड़ कर सब सखियाँ सहेली
चिड़िया सी चहकती थी खेली
कर सूना तेरे घर का कोना
मै चली पर तू यादें न खोना
बेटी परछाईं कहती सदा तू

मैया अब तू किसे डांटेगी
किसके बालों में कंघी फांसेगी
खनखनाती खामोश रसोई
कोई तंग न करेगा तू सोई
कैसे अकेली सम्भालेगी घर तू 


भाई छोड़ चली तुझे बहना
तू माँ बापू का एक ही गहना
झगड़े जो हुए सब भूल जाना
पर राखी पर बहिना बुलाना   
देख बचपन छोड़ेगा अब तू

मुझे कर दिया सबने पराया
जब से पिया को मुझसे जुडाया
क्या बेटी का रिश्ता हूँ खोई
अब कुछ करूं, न रोके कोई
यही विधि का विधान बता तू

आज बेटी बिदा होती बाबू

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

सच्चीमुच्ची

सच एक ऐसी चीज है
जो सब को नसीब है
लकिन आज के युग मे
कुछ की खो गई
कुछ रख कर भूल गए
कुछ के पास है
कुछ सत्यवादी हो गए

मै भी
सच को पूजता हूँ
हमेशा सम्भाल कर रखता हूँ
क्यूंकि उसका दुश्मन झूठ
हमेशा पिलाता है मुझे कड़वे घूँट
जब भी सच को सामने लाना चाहता हूँ
झूठ मुझे सताता हैअपना साम्राज्य याद दिलाता है
मुझसे कहता है
अरे मुर्खक्यूँ समय बर्बाद करता है
सच को याद करता है
मुझसे मांग जो मांगना है
किसको उल्टा किसको सीधा टांगना है

याद रख आज मेरा साम्राज्य है
और तुझे
किसी और का नहीं
सिर्फ मेरा हुकुम मानना है

अरे पापी
तुने एक बार हाथ बढाया था
मुझको अपनाया था
तुने सुना है दोस्त दोस्त के काम आता है
तू मुझे छोड़ के जाता है
मुझे देख
मै आज भी तेरे साथ हूँ था रहूँगा
तू ग़लत काम करयो
मै बचाता रहूँगा
अगर फिर भी
सच अपनाने की ठानी
छोड़ी न अपनी मनमानी
तो याद रख
आज तक तो दोस्ती देखी है
फिर पड़ेगी दुश्मनी निभानी
न पिटता हुआ पिटवा दूंगा
सरे आम मरवा दूंगा
दफ्तर में कलह
घर से निकलवा दूंगा
तू बड़ा मेरे बल पर छाती ताने घूमता है
अरे तन के सारे कपड़े उतरवा दूंगा
प्यार से कह रहा हूँ
दोस्त मान जा                  
सच से कुछ नहीं होने वाला
झूठ को पहचान जा
जब भी मेरे सामने ये घटना आती है
झूठ की याद सताती है
क्यूंकि जब भी सच बोला
दुख ही झेला

चुपचाप बताता हूँ
सच को भी पूजना चाहता हूँ
लेकिन
झूठ के डर से
तिजोरी में रखता हूँ
सामने लाने में घबराता हूँ  

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

मेरी बारात

आओ बनाओ दूल्हा मुझे
मेरी बारात ले चलो
पहने हैं नये वस्त्र अभी
मेरी ये राख ले चलो

दूल्हन बनी खड़ी है जो
आओ ब्याहने उसको चले
पहने है स्याह जोड़ा नया
आओ लिवाने उसको चलें

आज पहली रात है दोनों की
सब छोड़ अकेले आओगे
फिर जो निभाए बंधन हमने
तुम देखने एक पल आओगे

एक तोहफे का तो हकदार हूँ मै
चक्षु न करना नम कभी
रहें सदा हम दोनों यूँ ही
बस ये दुआ करना सभी