शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

साहित्य से नजदीकी

हम साहित्य की बात कर रहे थे
क्या होगा साहित्य का
यह सोच सोच कर डर रहे थे
कैसे बचाएं यह धरोअर इस उजड़ते समाज से
और कैसे अब बचाए इसे महा पंडितों के दाग से

अचानक विपरीत पक्ष से सवाल दगा गया

साहित्य किसे कहते हैं ?
जवाब दिया जिसके बलबूते हम सभ्य शिक्षा पाते हैं
जिसके कारण हम सबके हित की कहते, गाते हैं
जिसके रिश्तेदार अब जीवन के आखिरी पड़ाव में हैं
जो वयस्क हैं वो व्यवसायिक अंश के जकडाव में हैं

फिर सवाल आया साहित्य कहाँ है?
मै कहता पग पग में
अचानक पूछ लिया साहित्य को कहाँ ढूंढे?
महसूस करो हर पल में
 
वो बोले पहचान बताओ
हम बोले पहचान है तुम्हारी हर साँस
तुम्हारी जिज्ञासा तुम्हारी हर आस
उसे खोजने की चाह उसके लिए हर आह
तुम्हारे जीवन की प्रतिबधता समाज की कुछ बचीकुची सभ्यता
रिश्तों की धुंधली मिठास पत्नी के मन का विश्वास
बहन की राखी की लाज, पति का पत्नी पर नाज
पिता का पुत्र पर अधिकार माँ की गोद का अहसास
एक घर एक परिवार एक गाँव एक संसार और हर क्षण की प्यास
हर गीत हर संगीत धरती आकाश हर भीत और हर ओर की राह

अरे जहाँ चाहो वो मिलता है उसके बिना पत्ता भी ना हिलता है
इससे पहले कुछ और पूछे हम ताव खा गए
और कह दिया तुम जो बचे हो साहित्य उसका कारण है
अगर हम साहित्य के नजदीक ना होते तुम यहीं खेत होते

तुम चाहो भी तो लुप्त ना होगा छिपाओगे पर गुप्त ना होगा
सांसें चलती उसकी लय में संसार चलता उसकी शय में
अगर जीवन है तो साहित्य है अगर मरण है तो साहित्य है
साहित्य समय का हर चरण है हमने ओढ़ा वो आवरण है

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सहित है, साहित्य है।