मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

आटा बिखर गया

सर्दी में था पसीने से नहाया
गर्मी में था खून भी सुखाया
तब था गरीब ने खाना पाया
एक थैली भर वो आटा लाया
अमीरी ठोकरों से विफर गया 
गरीब का ही आटा बिखर गया

रफ्तारी कार पड़े आटे गुजरी
आटे ने आंतरिक लहू उगला
कर्राहट कौम की थी चीख पड़ी
आटा पड़ा रहा, बिखर पगला
ऊँचे ह्रदय न कुछ सिहर गया  
गरीब का ही आटा बिखर गया

दो जून रोटी उसी आटे से होती
अट्टालिकाएं झोंपड़ी दोनों पोती
मानव ने मानव को जुदा किया
रोटी को ही रोटी से अलेदा किया  
क्यूँ आटा आटे को अखर गया
गरीब का ही आटा बिखर गया
   

   


2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गरीब के साथ ही क्यों होता है यह।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

अनुभव से लिखी गई आपकी सार्थक अभिव्यक्ति