गुरुवार, 30 जून 2011

प्रकृति

मेरा स्थान हवाओं सा 
मेरी महक है फूलों सी 
मै चहका करता पंछी सा
रक्षक बन चुभन शुलों सी 
बन बन फैला वृक्षों सा 
आरक्षण, अन्तरिक्ष सा
मेरी निर्मलता जल जैसी 
मेरी मिठास एक फल जैसी 
मेरी ममता में धरा गुण 
मेरी चाहत सरगम धुन 
तीखी किरणे सूरज सी 
शीतलता चंदा मूर्त सी 
तुम पूछते मेरा परिचय 
में प्रकृति डोलूं झूलों सी

रविवार, 26 जून 2011

दरिया लेखन

इतना कह गये कहने वाले 
सोच को यहाँ आराम कहाँ
रोज लिखे जा रहे गीत नये 
कलम को यहाँ विश्राम कहाँ 
शब्दकोश में शब्द हैं सिमित 
पर विभिन्न अर्थ खदान यहाँ 
बहता दरिया लेखन सदा बहे
सड़े लिखा जोहड़ नाम कहाँ 

   

गुरुवार, 23 जून 2011

सीमा

झुकना मुझे सिखाया था 
धरा ने बांधी थी सीमा
ऊँचा उठने की चाह थी 
गगन ने बांधी थी सीमा 
चलना मुझको तेज था 
समय चला बांध सीमा 
खुशबु जो फैलानी चाही 
हवा चली तोड़ सीमा  
सीमा जो जाननी चाही 
नजर नही आयी सीमा 
   

मंगलवार, 21 जून 2011

नई कोपल

माली को खबर 
फूल मुर्झा रहे हैं
पतझड़ आया 
पेड़ पत्ते टपका रहें हैं

अब समय 
नई कली संग कोपलों का 
पुराने समय से 
जा रहें हैं
 

शनिवार, 18 जून 2011

नासमझी हम नासमझ

सभी सीख हमें देते
नासमझी हम नासमझ 

सूरज कहे चलो समय रौशन 
चंदा शीतलता 
धरती ममता 
गगन समेटे 
तारे झिलमिल चादर बिछाये 
वृक्ष छाँव  संग फल दे जाए

पुष्प चाहे सब खुशबु में मुस्काय
जल जीवन का यूँ चलन 
पवन छुपी सब जग जाए 
अग्न लग्न को एक बिंदु 
भड़के सब लील जाए     

सभी सीख हमें देते
नासमझी हम नासमझ 
और कौन समझाये

शुक्रवार, 17 जून 2011

कोई नही चाहता

लिखना तो सब जानते हैं
लिखना कोई नही चाहता
दशा दुर्दशा सब है अनुभव 
बाँटना  कोई नही चाहता 
फसल संग खरपतवार खड़ी 
छांटना कोई नही चाहता 
घर में जो गंद बदबू उठा रही 
झाड़ना कोई नही चाहता 
रेशे सन के टूट रहें हैं घर के 
बाँटना कोई नही चाहता 
लड़ते लड़ते जीते जाते सब 
टालना कोई नही चाहता 
रेत की बुनियाद दुश्मन रखे 
रेतना दुश्मन कोई न चाहता 
आज फैली मोतिओं की माला 
पिरोना फिर कोई नही चाहता 
चाहत कहते सब फिर रहे 
जानना कोई नही चाहता       


शुक्रवार, 10 जून 2011

रवि तक न पहुंचे कोई मैंने वो राह भी जोई

मेरा एक अनुभव अनोखा 
आपने न सुना 
पर मुझे मिला मौका 
दिन में आँखें खुली पर स्वप्न एक आया 
और खुद को एक अजीब लोक में पाया 
स्वर्ग या नर्क 
ये अभी तक समझ नही आया 
आमने सामने दो महल जैसे खड़े थे 
और दोनों ही में तीन तीन फाटक जड़े थे 
दोनों महल जैसे अलग अलग धर्मो के 
जुड़े हुए मकान थे 
शायद कौमी एकता की अजब पहचान थे 
एक पर जहन्नुम HELL और नर्क नाम के फाटक 
दुसरे पर जन्नत HEAVEN और स्वर्ग नाम का फाटक
न कोई आता दिखा न कोई जाता 
बस चारों ओर था अजब सन्नाटा 
अचानक रामलीला की वेशभूषा में 
एक पात्र दिखाई दिया 
कौताहल वश पूछ लिया 
ये स्थान कौन सा है जिसने मुझे भटका दिया
उसने कहा
आप कर्म और कुकर्म के बीच पड़े हैं 
आपके दोनों ओर
इंद्र महल और यम नगरी खड़े हैं 
पर भाई 
दोनों ओर जाने को धार्मिक रास्ते 
ताकि इन्सान यहाँ आकर न लड़ें इस वास्ते 
रास्ते यहाँ तीन तीन हैं 
पर सब एक के अधीन हैं 
यहाँ पर क्यों इतना सन्नाटा 
क्या भी कोई धार्मिक चाँटा
ओ मेरे प्रश्नों के व्यापारी 
लो शंका दूर करूँ तुम्हारी 
बहुत समय से
इंद्र के कुछ बंधक राक्षस भागे हुए थे    
उनके कुछ अंश एक ही जगह मिल गये हैं
उन्हें ही देखने सभी एक जगह एकत्रित हैं 
जो पाए गयें हैं उनमे प्रमुख हैं
भ्रष्टाचार अत्याचार कामुकता झूठ 
चोरी धोखा कपट छल और लूट
बाकि अभी भी धरती के दुःख हैं 
आज इनके अंश कुछ विशेष के पास हैं
और जिन्हें घेर के लाया गया है 
एक ही के पास हैं 
एक ही के पास ?
हाँ भाई हमे भी न दिखाई देता 
अगर न मरा होता धरती का नेता 
तुम एक सीख लेलो 
नेता से बचो बाकि सब झेलो 
मैंने जो सर झटका दिवार से टकरा गया 
और मै होश में आ गया    

बुधवार, 8 जून 2011

अकेले भले

पौध लगी                         
या 
बीज लगा 
पानी खाद 
लगी लगी न लगा न लगा 
अपनी राह 
बढ़ता रहा
हुआ जवाँ
फल फूल छाँव
जिस लायक था 
दिया बिना भाव 
सहे चाहे घर्षण या घाव 
न दुश्मनी न दोस्ती 
दीमक चाटी 
या 
लता प्रेम से लिपटी 
उम्र हुई चली चले 
भीड़ से अकेले भले

मंगलवार, 7 जून 2011

चेतना

रात की खुमारी में 
कोयल सी घंटी टूनटूनाई   
समझ गया  
तुम आई 
तुम हर दिन 
दुल्हन की तरह 
सजी हुई आती हो 
सोतों को जगाने 
और मै 
जागते ही 
दिनचर्या में खो जाता हूँ  
जब होश संभलता है 
तुम जा चुकी होती हो 
और मै फिर सो जाता हूँ
एक शंका 
जिस दिन से तुम न आई
उस दिन से 
दिन न निकलेगा 
और 
जहान सोता ही रह जायेगा    

रविवार, 5 जून 2011

मकड़ी

मकड़ी तनिक समझा हमे 
कैसे बुना तुने ये जाला
अकेले लगी रही तू बुनने 
बुन डाले मोड़ संग आला
तेरी बुद्धि को हम सराहते
लगी रही लगन के रास्ते   
फंसने वाला न बाहर भागे 
कितने करीब रखे ये धागे 
मेहनत करना तुझसे सीखे 
सभी जोड़ मोड़ एक सरीखे 
तेरी कला का नही है सानी
जोड़ लगे पर गाँठ न जानी
बिन गांठ के तोडा जोड़ा 
हमे भी समझा तू थोडा 
अपने भी जब तोड़े जुड़े 
गांठ हमेशा ही बीच पड़े 
तुझे गुरु बना हम पूजें 
बता गांठ न हो एक दूजे     
मकड़ी तू तो मकड़ी है 
बुद्धि मानव से तगड़ी है

शनिवार, 4 जून 2011

जीवन तू सागर न बन

जीवन तू सागर न बन 

सागर हर वस्तु से खेलता 
जिधर का रुख उधर धकेलता 
पर मेरी नौका के आगे 
सागर बेबस हो जाता है 

जीवन तू देख सम्भल जा 
हठ न कर धकेलने की 
मुझ जैसे विरले मिलेंगे 
न चाहें जीवन ठेलने की

जब तक मै था बिन नौका 
तुने खूब धकेला था 
अब मै नौका में चप्पू थाम
निश्चय कर अपना आया हूँ 

तेरे अटखेलिओं के संग 
स्वयं को न बहने दूंगा 
तू दिशा रहित बिन मंजिल के 
उस ओर नही बढने दूंगा 

तू मेरा जीवन है 
तुझे चलना होगा संग मेरे 
दृढनिश्चय मेरा मंजिल का  
तुझे बढना होगा संग मेरे 

जिस नौका की चाह थी 
वो नौका नाम दृढनिश्चय
ठान लिया तो ठान लिया
अपना ये छोटा सा परिचय

सागर खामोश बस हाथ मले 
जब पतवार लहर विरुद्ध चले 
जीवन तू सागर न बन 
वरना जीवन, जीवन से हाथ मले  

गुरुवार, 2 जून 2011

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

बादल काले हो चले बोझिल से पानी भरे 
गहन धुप घर चली साँझ को चाबी दिए
अब जलने लगे हैं चूलेह धुंए बतला रहे 
पर मेरे चूलेह को लिपटने चिंगारी न आई 

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

स्वप्न का ताना बुन आँखों में नींद समाई 
सोई तो भी पर घर स्वप्न से न भर पाई 
बैलों की जोड़ियाँ चली ले हल खेत जोतने 
नसीब में सब लिखा पर बीज न लिखा पाई 

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

लाडो सयानी हो चली ब्याहने का पंचांग लिए 
न्योते आने लगे सभी हम उम्र दरवाजों से
डोली उठने लगी सूरज की किरणों से पहले 
सूरज जग गया पर बेटी भाग्य हल्दी न आई    

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई

जिस रास्ते सब चले पथरों को तोडा था मैंने 
लोहे ने सींच कर पत्थर जोड़ रास्ता बनाया
पत्थर टूट कर जुड़ गये गाँव शहर हो चले 
अपने भाग्य का पत्थर न तोड़ कर जोड़ पाई   

अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई  

बुधवार, 1 जून 2011

कलम कवि की

जी चाहता है उन पर लिखूं 
जो अपना देश चलते हैं 
जनता की बर्बादी पर 
धोखे के आँसूं बहाते हैं 
पर ज्यूँ ही लिखने बैठा
कलम की नोक टूट जाती है 
यदि बदलता हूँ कलम 
स्याही तभी सूख जाती है 

इस अचरज पर अचरज कर
मैंने एक अध्ययन किया 
एक शिक्षा है जो मैंने पाई 
गाँधी बन्दर मुख पर हाथ 
कलम कवि की सच चलती 
झूठ चाहकर भी न लिखती 
चरित्र यदि समक्ष खड़ा हो 
स्वयं ही चलती जाती है 

मेरे चुने श्वेत वस्त्र धारकों 
चाह कर भी न लिख पाउँगा 
यदि कलम के विरुद्ध चला 
कलम से विमुक्त हो जाऊंगा 
कलम बिना जीना कठिन  
जीते जी भी मरा कहलाऊंगा  
तुम्हारे बिना कुछ न घटता 
विरह कलम न सह पाउँगा