कलम कवि की
कलम कवि की
गुरुवार, 23 जून 2011
सीमा
झुकना मुझे सिखाया था
धरा ने बांधी थी सीमा
ऊँचा उठने की चाह थी
गगन ने बांधी थी सीमा
चलना मुझको तेज था
समय चला बांध सीमा
खुशबु जो फैलानी चाही
हवा चली तोड़ सीमा
सीमा जो जाननी चाही
नजर नही आयी सीमा
1 टिप्पणी:
प्रवीण पाण्डेय
ने कहा…
सबने बाँध कर रख दिया है, न जाने कितने बन्धनों ने।
24 जून 2011 को 8:27 pm बजे
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1 टिप्पणी:
सबने बाँध कर रख दिया है, न जाने कितने बन्धनों ने।
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