गुरुवार, 23 जून 2011

सीमा

झुकना मुझे सिखाया था 
धरा ने बांधी थी सीमा
ऊँचा उठने की चाह थी 
गगन ने बांधी थी सीमा 
चलना मुझको तेज था 
समय चला बांध सीमा 
खुशबु जो फैलानी चाही 
हवा चली तोड़ सीमा  
सीमा जो जाननी चाही 
नजर नही आयी सीमा 
   

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सबने बाँध कर रख दिया है, न जाने कितने बन्धनों ने।