सोमवार, 27 सितंबर 2010

नन्हे नन्हे

तुने नन्हे नन्हे हाथ दिए हैं
उनसे कैसे तुझको पाऊं मैं

पवन चले जब भी बसंती
लहलहाती खेत सरसों के
चुनरी उड़ उड़ जगह छोड़े
कैदी मन अंदर यूँ मचले 
कैसे पकड़ बाहर उडाऊं मैं

पहली किरण से बाबा सूरज
जब लगे नैनों को चमकाने
चाहूँ मुट्ठी में उन्हें लिपटाना
चंचल खेलें खेल आवे जावे 
कैसे उन्हें कस कर दबाऊं मैं 

नदिया की हर लहर पुकारे
बैठ बतियाता उस किनारे
लहरें गातीं यूँ गीत हर पल
जीवन जीता सरगम सहारे
सरगमी लहरें कैसे लाऊं मैं

चंदा मस्त हो चांदनी संग
कर ठिठोली फिर इतराए
प्रेम की अपनी भाषा बोले
हमे शीतलता मे नहलाये
कैसे प्रेम मधुरता पाऊं मैं

तुने नन्हे नन्हे हाथ दिए हैं
उनसे कैसे तुझको पाऊं मैं

शनिवार, 25 सितंबर 2010

पूरी तैयारी?

गोली चली कार फटे
विदेशी खेलों से हटे
कम खिलाडी जीत हमारी
अब समझे पूरी तैयारी?

खरीद सस्ती किराया भारी
खाना पूर्ति पृष्ठों पर हमारी
धरती के हम बोझ हैं भारी
पाओ दर्शन हम भ्रष्टाचारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

ये संजोग आगे बढने का
हर पदक घर में रखने का
डेंगू , गुनिया से रिश्तें अपने
चाहें खेलें कम असल खिलाडी
अब समझे पूरी तैयारी ?

पुल बनाए गाँव बसाए
समय से पहले यदि गिर जाएँ
बचाया बांटे जो बुलाए समिति
फूटी किस्मत की लाचारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

प्रभु सुबह शाम यही प्रार्थना
इस  बार पदक हमे ही बाटना,
प्रतियोगी आएं पाएं बीमारी
चाहे  सरकार रहे ना रहे हमारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

अतिथि देवो भव:,
अतिथि देव रहें सुरक्षित
आने से तुम उनको रोको
ना  हो कलंकित धरा हमारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

सुनते हम दिल्ली मेरी शान
घोंट गला, निकलने को जान
सुर में हो या बेसुर ज्ञान
पर गाती मुखिया हमारी
हमारी है पूरी तैयारी?

सोमवार, 20 सितंबर 2010

सुखद सपना

हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं
मानवता का पूज्य वो भगवान देखना चाहतें हैं

धर्म कर्म हो अपने साँझा, ना लगे किसी को ठेस
अपना हो एक ऐसा देश, जिसमे हो लुभावने वेश
रंग बिरंगी चाहतों का आकाश देखना चाहते हैं
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

बोलें हम ऐसी बोली, ना झगडा हो ना चले गोली
दुश्मन ना कोई उपजे, लगे फसल प्रेम की बोली
एक ऐसा अपना प्यारा, किसान देखना चाहतें हैं
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

स्वतंत्र हो हर इन्सान, परिंदों को हो आसमान
दूर तक फैलाए महक, ऐसे फूलों का गुलिस्तान
ना कांटे ना चुभन, बागबान एक ऐसा चाहते हैं
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

आदर प्रेम और दुलार, पायें बांटे बस हम प्यार
हर तरफ हो खुशियाँ, मुस्काता हो अपना संसार 
नफरतों की जड़ मिटाए, फिर चाणक्य चाहते हैं 
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

मायने

शब्द कोष मे शब्द पढ़े थे
सुंदर वाक्यों मे भी जड़े थे
आज मायने पूछने उनके
जब कोई मुझ तक आता है
मै उम्र के इस पड़ाव मे
उनको विस्तृत समझाता हूँ

हम उस युग मे जो भी पढ़ते थे
उसे अपने जीवन संग गढ़ते थे
तब लिखे के मायने असल थे
चरित्र मे डूबे, दर्शाते अमल थे
आज कठिन लगते हैं मायने
गुरु भी ढूंढें, समझाने के बहाने

तब प्रेम प्रेम, और द्वेष द्वेष था
आज प्रेम द्वेष का मायने  एक  
जो झलकावे अधूरी शिक्षा है पाई
तख्ती कलम खोए सूखी रोशनाई
सीख सीखी तब रखना चाहूँ याद
मायने वही जिसमे ना हो अपवाद 

रविवार, 19 सितंबर 2010

बिन बोले

गया दूर, सपने अधूरे, एक याद बाकी रह गई
सारी आशाएँ, मन की इच्छाएँ, मन मे रह गई
दो तनो को जोड़ने का, अनोखा बंधन होते तुम
तरसते कान, बरसती आँखें, ये बिछोड सह गई
हर कोई पूछता है तुम आकर भी क्यूँ  ना दिखे
हम चुप रहे पर आँखे बिन बोले ही सब  कह गई     
  

पुस्तकें

पुस्तकें नयी आतीं थीं
जो बड़ा होता उसे दी जाती थी   
ना फटे कटे ना धागे छटे
शर्तें साथ लगाई जाती थी
पुस्तक को माता समझ 
हम बार बार सिर से लगाते 
चाहें कसम तुम कोई खिलाओ 
पर विद्या माँ की कसम ना खाते
एक  आती सारे पढ़ जाते 
उसके बाद यादें संजो आते 
जिनको पढ़ हम यहाँ हैं आए 
आलस्य बने आविष्कार छाए 
वही अपनी खोजें देखो 
पुस्तक को चबा रही हैं 
धीरे धीरे लुप्त कर उन्हें 
अंधेरों मे दबा रही हैं 

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

आज़ाद प्रक्रति

ज़िंदगी जलती नहीं
जला दी जाती है
साँसे यूँ बहती नही
बहा दी जाती है
सूखी रहती हैं आँखे
चाहें जो उम्र हो
तालाब बन ना सड़ें आंसूं
नदी उनकी बहाई जाती है 
प्रेम तरसता है
फैलने को
फैलता नहीं
बाँध दिया जाता है
नफरत रुकना चाहती है
पर उसका अपना मकान नहीं
कभी इसके घर कभी उसके घर
ठहरा दी जाती है 
स्वतंत्र हम
परतंत्र सच
क्या प्रक्रति कभी
आज़ादी मनाती है 

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

पड़ाव


आना जाना लगा रहा
यही धरा की परम्परा 
क्या है जो बस है आता
जा कर भी न जा पाता
ना नाम ना गॉंव ना काम 
ना बाम ना चाम ना धाम
चलो चलें हम ढूंढने
उस शिखर को चूमने 
जहाँ मिले एक ठहराव  
जो ठहरे पावुं पड़ाव   

कब तक

अन्धो का शहर
चश्मों का व्यापार
बघिरों की बस्ती
सरगम की बोछार
गुंगो का मोहल्ला
उठे शब्दों का हल्ला
बेहाथ सभी साथ
मिलाते दोस्ती का हाथ
पैर गंवा कर वो दिखे
भौतिक दौड़ मे दौड़ते
पर कब तक तरसेंगी
मेरी चाहत अंदर ही
असल मुझे असल सा
मिले बूँद या समुन्द्र ही
दिखे वो जो सब करें
जो सब करने के काबिल          

रविवार, 12 सितंबर 2010

लाडो क्षमा

हंसी संजोये होठों पर
रखती आँखों मे वो पानी
मन मे सपने लिए अनोखे
वो पाले थी पेट मे रानी
अपनी अभी पुरुषार्थ दिखा वो
कह गए, बाहर कभी ना आए
पुरुष जना, जो बाहर खेले
आये तो बस पुरुष ही आए
अपनी लाडो पर हाथ रखे वो
सूखी आँखों से झांक बोली
लाडो जन कर पुरुष को हमने
नारी पर ये स्थिती बो ली
लाडो क्षमा मै तुझसे मांगू
 कर क्षमा तू माई को
 दोष यदि कोई मेरा बच्ची
क्षमा पुरुष की जाई को
तभी हुई एक अजब कहानी
पेट से सुनाई दी जुबानी
माँ थोड़ी तू हिम्मत रख
मेरे आगमन का दर्द भी चख
फिर तू देखेगी ये बेटी
प्रेम प्यार से हरेगी हेठी     
माँ देख तू भाई को
उसकी सूनी  कलाई को
भाई भी मुझको है चाहता  
छुप छुप आंख में पानी लाता 
तू कहती बापू न चाहता
बाप बिना कोई कैसे आता
दादी बुआ तुझे जो  कहती
अंदर मै सब सुनती रहती
तू उनको क्यूँ न समझती
 उनकी भी है नार्री जाती
जो वो दुनिया में न होती
वंश के बीज किस में बोती
दादा आया दादी लाया
बापू आया तुझे था लाया
काहे ये समझे ना कोई
हमने ही ये वंश बढाया
क्यूँ सीता चली थी अग्नि पर
क्यूँ द्रोपती पर पांचो का साया
गांधारी ने क्यूँ पट्टी बाँधी
क्यूँ सती का धर्म था छाया
हर प्रश्न का उत्तर तू पाए
पुरुष कम, सब नारी से आए
अब लगे समय वो आया
नारी को नारी ना भाए
चल उठ खड़ी हो अब तू
 बजा बिगुल उद्घोषणा कर तू
धरती करे बस वो ही पैदा
जिसका बीज उसमे जो बोवे
गर नारी अब बाँझ हो गई
समस्त धरा धराशाही होवे
अब सुधर तू अब सुधर
ओ समाज आवेगी लाज
एक दिन ऐसा आवेगा
एक ही जैसे दो जन मिलकर
ना पैदा कर पावेगा
रिश्तों का कर अंत
तू अपनों पर नज़र गडायेगा
फिर बस तू पछ्तावेगा
जब तेरा खेत चुगा जावेगा
जब तेरा खेत चुगा जावेगा


शनिवार, 4 सितंबर 2010

देखा है

मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है
जहाँ कोई खड़ा ना हो उस छोर से देखा है

पथ की बाधाओं से लड़ते पैरों को देखा है
बिन पैरों  चलते हमने लंगड़ो को देखा है

दो हाथों को जूझते हमने लहरों से देखा है
जिनके ना थे हाथ उन्हें तरते हुए देखा है

जहाँ गूंगे हमे कठिन शब्द बोलते दीखे
वहां जुबाँ वालों की जुबाँ पर ताले दीखे

आवाज दिल की सुन बधिर झूमते दीखे
सुनने वालों को सुन कर बहरा होते देखा

जग को मैंने समस्त उल्टा पलटा देखा है
सीधा चलो कहें हमेशा उल्टा चलें देखा है

मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है           

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

गुरु

पूजन को संसार मे गुरु से बड़ा ना कोई
लुटाता रहे ज्ञान धन, पर कंगला ना होई

पढ़ा लिखा हो मानव, वो ही गुरु ना कहावे
अनपढ़ जो देवे शिक्षा गुरु की श्रेणी में आवे

जो मै चाहूँ बैठ लिखूं, गुरु की परिभाषा क्या
मूर्खों का राजा दिखूं, सूर्य चमकीला करूँ बयाँ  

पूजन को संसार मे गुरु से बड़ा ना कोई
राजीव लुटावे ज्ञान धन लूट सके ना कोई