मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है
जहाँ कोई खड़ा ना हो उस छोर से देखा है
पथ की बाधाओं से लड़ते पैरों को देखा है
बिन पैरों चलते हमने लंगड़ो को देखा है
दो हाथों को जूझते हमने लहरों से देखा है
जिनके ना थे हाथ उन्हें तरते हुए देखा है
जहाँ गूंगे हमे कठिन शब्द बोलते दीखे
वहां जुबाँ वालों की जुबाँ पर ताले दीखे
आवाज दिल की सुन बधिर झूमते दीखे
सुनने वालों को सुन कर बहरा होते देखा
जग को मैंने समस्त उल्टा पलटा देखा है
सीधा चलो कहें हमेशा उल्टा चलें देखा है
मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है
1 टिप्पणी:
अच्छी रचना.
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