शनिवार, 4 सितंबर 2010

देखा है

मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है
जहाँ कोई खड़ा ना हो उस छोर से देखा है

पथ की बाधाओं से लड़ते पैरों को देखा है
बिन पैरों  चलते हमने लंगड़ो को देखा है

दो हाथों को जूझते हमने लहरों से देखा है
जिनके ना थे हाथ उन्हें तरते हुए देखा है

जहाँ गूंगे हमे कठिन शब्द बोलते दीखे
वहां जुबाँ वालों की जुबाँ पर ताले दीखे

आवाज दिल की सुन बधिर झूमते दीखे
सुनने वालों को सुन कर बहरा होते देखा

जग को मैंने समस्त उल्टा पलटा देखा है
सीधा चलो कहें हमेशा उल्टा चलें देखा है

मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है           

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छी रचना.