रविवार, 19 सितंबर 2010

पुस्तकें

पुस्तकें नयी आतीं थीं
जो बड़ा होता उसे दी जाती थी   
ना फटे कटे ना धागे छटे
शर्तें साथ लगाई जाती थी
पुस्तक को माता समझ 
हम बार बार सिर से लगाते 
चाहें कसम तुम कोई खिलाओ 
पर विद्या माँ की कसम ना खाते
एक  आती सारे पढ़ जाते 
उसके बाद यादें संजो आते 
जिनको पढ़ हम यहाँ हैं आए 
आलस्य बने आविष्कार छाए 
वही अपनी खोजें देखो 
पुस्तक को चबा रही हैं 
धीरे धीरे लुप्त कर उन्हें 
अंधेरों मे दबा रही हैं 

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