गुरुवार, 16 सितंबर 2010

आज़ाद प्रक्रति

ज़िंदगी जलती नहीं
जला दी जाती है
साँसे यूँ बहती नही
बहा दी जाती है
सूखी रहती हैं आँखे
चाहें जो उम्र हो
तालाब बन ना सड़ें आंसूं
नदी उनकी बहाई जाती है 
प्रेम तरसता है
फैलने को
फैलता नहीं
बाँध दिया जाता है
नफरत रुकना चाहती है
पर उसका अपना मकान नहीं
कभी इसके घर कभी उसके घर
ठहरा दी जाती है 
स्वतंत्र हम
परतंत्र सच
क्या प्रक्रति कभी
आज़ादी मनाती है 

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा!

Ra ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना , ...!!!

अथाह...

!!!