कलम कवि की
कलम कवि की
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
पड़ाव
आना जाना लगा रहा
यही धरा की परम्परा
क्या है जो बस है आता
जा कर भी न जा पाता
ना नाम ना गॉंव ना काम
ना बाम ना चाम ना धाम
चलो चलें हम ढूंढने
उस शिखर को चूमने
जहाँ मिले एक ठहराव
जो ठहरे पावुं पड़ाव
1 टिप्पणी:
POOJA...
ने कहा…
us tahraav kee talaash to sabhi ko hai...
bahut achhee panktiyaan
14 सितंबर 2010 को 10:48 am बजे
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us tahraav kee talaash to sabhi ko hai...
bahut achhee panktiyaan
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