मंगलवार, 14 सितंबर 2010

कब तक

अन्धो का शहर
चश्मों का व्यापार
बघिरों की बस्ती
सरगम की बोछार
गुंगो का मोहल्ला
उठे शब्दों का हल्ला
बेहाथ सभी साथ
मिलाते दोस्ती का हाथ
पैर गंवा कर वो दिखे
भौतिक दौड़ मे दौड़ते
पर कब तक तरसेंगी
मेरी चाहत अंदर ही
असल मुझे असल सा
मिले बूँद या समुन्द्र ही
दिखे वो जो सब करें
जो सब करने के काबिल          

1 टिप्पणी:

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

अक्‍सर ब्‍लाग पर कविता नहीं बस सरसरी तौर पर देखती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ लेकिन आज इस कविता ने रुकने पर मजबूर कर दिया और अब टिप्‍पणी के लिए भी। सशक्‍त कविता है और हो भी क्‍यों ना? नीरज का सामीप्‍य मिले तो कुछ बात तो बनेगी ही ना? बधाई।