गुरुवार, 27 जनवरी 2011

ह्रदय आत्मा

रात पर न दोष मढो दिन भी है समान
पाप पुण्य करने को हैं यह दोनों मकान
रात ढकती अँधेरे से दिन छुपाता काम 
आंख खुली पर न दिखे ये जग जहान
भ्रमित रहे अंतर्मन दोष सके ना जान
समझ फेर बुद्धि फिरें बनता है भगवान
अपना ह्रदय आत्मा से बस देख जहान 
राजीव समझ आए तब दूर हो दुष्काम 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

विचार

जब हम हम थे, तब गम ना थे
अब जब गम हैं, तब हम ना हैं

 

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

चाह

मानव जीवन चलता है
यात्रा धर्म में पलता है
बात जो समक्ष आती है
यात्रा नये वस्त्र पाती है
जीवन जिए वस्त्र लिए
नये, पर पुराने सभी हुए

मित्रो अंतिम यात्रा के लिए 
एक चाह में राजीव जिए
ढकने तन को ढूंड पुराना
नाप तन को तुम ले आना
यदि चढ़े कोई गर्म नया
उसे ठिठुरते को दे आना        

रविवार, 9 जनवरी 2011

सभ्य सभ्य

दादा नाना से सुनते थे
मानव मंडी में बिकते थे
नर देह की ताकत देख
नारी तन मादकता देख
हाथ लगा कर गर्मी ले  
बोलियाँ सेठ लगाते थे
चाह अनुरूप हर दास दासी
कैद हवेली पिंजरा पाते  थे
पशु योग्य के अनुरूप सारे
अपने सभी कार्य करते थे
पशु पैशाचिक जैसे काम
सब दास दासी ही पाते थे

समय बदला तब कानून बने
बोली लगे न कोई गुलाम बने
पर हर घर की है वही कहानी
नौकर हो घर की रीत पुरानी
नया रूप में मानव मंडी देखो
अब बंद होटलों में सजती हैं
खेलों में नाम शीर्ष पर मानव
अब बोली उनकी भी लगती है
क्या ये बिकते मानव तन सभी
अपना वो इतिहास दोहरातें हैं
जो खरीदे तन पहले करते थे
क्या वो पैशाचिक काम पातें हैं

नई सुबह बनते नए  कानून
सभी बस एक धोखा मात्र है
अतीत हमे  भीतर घेरे  ऐसा
रूप बदल कर समक्ष लातें  हैं
बिन झांके अपने अपने भीतर
सभ्य सभ्य का राग गातें हैं   

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

चल झाड़ हाथ

शिथिल शरीर
उखड्ती साँस
उचाट सा मन  
थकन अहसास
भारी से कदम  
बोझिल आत्मा

थकी सी पलक
पुतली कांपना
सांझ हो गई
घर को ताक
समय हुआ
चल झाड़ हाथ