रविवार, 9 जनवरी 2011

सभ्य सभ्य

दादा नाना से सुनते थे
मानव मंडी में बिकते थे
नर देह की ताकत देख
नारी तन मादकता देख
हाथ लगा कर गर्मी ले  
बोलियाँ सेठ लगाते थे
चाह अनुरूप हर दास दासी
कैद हवेली पिंजरा पाते  थे
पशु योग्य के अनुरूप सारे
अपने सभी कार्य करते थे
पशु पैशाचिक जैसे काम
सब दास दासी ही पाते थे

समय बदला तब कानून बने
बोली लगे न कोई गुलाम बने
पर हर घर की है वही कहानी
नौकर हो घर की रीत पुरानी
नया रूप में मानव मंडी देखो
अब बंद होटलों में सजती हैं
खेलों में नाम शीर्ष पर मानव
अब बोली उनकी भी लगती है
क्या ये बिकते मानव तन सभी
अपना वो इतिहास दोहरातें हैं
जो खरीदे तन पहले करते थे
क्या वो पैशाचिक काम पातें हैं

नई सुबह बनते नए  कानून
सभी बस एक धोखा मात्र है
अतीत हमे  भीतर घेरे  ऐसा
रूप बदल कर समक्ष लातें  हैं
बिन झांके अपने अपने भीतर
सभ्य सभ्य का राग गातें हैं   

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सभ्य रहें हम?
यदि बिकते हैं।