बुधवार, 29 दिसंबर 2010

छाता है पाता है

आओ एक दुसाहस करे
लकीर का फकीर न बन
ढले सूरज को कर नमन
आओ पहले ये साहस करें

जिसने जल जल पुरे दिन
रास्ता साफ़ कर दिखाया
हमने उसे तनिक न कहा
उसने अपना कर्तव्य निभाया

उसकी निश्चितता तो देखो
बिन कहे रोज वो आता है
स्वार्थ भाव में सुबह पुजता
सांझ अकेला रह जाता है

एक सत्य है यही धरा का
जो छाता है पाता है सदा
ढले हुए या जर्जर हो पड़े
समय आए जाता है सदा

आओ ढले को भी अपनाएं
अहसानों को ना हम भुलाएँ
ढलना एक दिन सबको है
उदय और अस्त सबको है

आओ एक बार प्रयास करें
ढले भी पूजें ना उपहास करें
सृष्टि को हो गर्व पाल हमे
ऐसा पुत्र होने का साहस करें 

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

उड़ने वालों सुनो

आकाश पर उड़ने वालों सुनो
तुमेह  धरती का है ये कहना
ऊँचा उड़ो चाहे तुम नभ छुलो
पर धरती पर तुम्हे है रहना

नभ पाने के तुम स्वप्न लिए
जीवन का चौथा हिस्सा जिए
जो मिला था उसकी बेकद्री
राहें जो चुनी सारी दर्द भरी
बिन पंख तुने  उड़ना चाहा
कटा सा तू  धरा पर आया
इसलिए तो कहता हूँ ये मै
आकाश पर उड़ने वालों सुनो


जागे हो या तुम सोये हुए
स्वप्नों में रहे सदा खोये हुए
मर्ग वाली तर्ष्णा सम्भाली थी
सच वाली जगह सब खाली थी
मुट्ठी बंद पर क्या मांगते तुम
मुट्ठी खोलो तब तुम पाओगे
इसलिए तो कहता हूँ ये मै
आकाश पर उड़ने वालों सुनो


हर रिश्ता है तुमेह लुभाने को
जीवन में कुछ समय बिताने को
पड़ाव आते ही  उतरते जायेंगे
संग तेरे कभी भी ना आयेंगे
फिर क्यूँ तू उड़ता रहता है
क्यूँ सच को ना तू सहता है
इसलिए तो कहता हूँ ये मै
आकाश पर उड़ने वालों सुनो

आकाश धरा का प्रेम है ये
वो देता धरा को जीवन भर
तू देख वो दोनों दूर सदा
रहते संग ज्यूँ ना हो जुदा
जो छोड़ धरा को नभ को चला
नभ ने उसे धरती पर ही मला     
इसलिए तो कहता हूँ ये मै
आकाश पर उड़ने वालों सुनो

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

भूख

उसको जो लगी भूख तो वो काम को चला गया
मुझको जो लगी भूख तो मै व्योम में समा गया

क्या उसकी भूख और मेरी भूख दोनों में अंतर है
या उसकी भूख और मेरी भूख दोनों समानांतर है

पेट और पेट तले की भूख संग जो चला चला गया
भूख जो उपर हो पेट से तृप्त, मुक्त हो चला गया

भूख की भूख भक्षक बनी जग उसी में निगला गया         
सिर्फ यही सोच को लिए मै भीतर ही विचला गया

उसको जो लगी भूख तो वो काम को चला गया
मुझको जो लगी भूख तो मै व्योम में समा गया

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

माटी मिला

दुनिया से कूच की चाह ने उनके हाथ को होठों पर ला दिया
प्यार जिन होठों से निकलना चाहता था उनपर जमा गया
वाह बनाने वाले तुने किस मिटटी से बना कर सजाया इसे
ना जीता है माटी मिला और ना मरने पर माटी मिलता है  

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

ना चाहूँ

अब और ना चाहूँ मै तुझसे
जो दिया मै उसे सम्भाले हूँ

नन्हे हाथों संग खेल कूद 
घुटनों चलता माटी मलता 
अपने इन पैरों के होते भी
बचपन में चल ना पाता था
तब तू ही रूप बदल आया 
तुने माँ बन मुझे चलाया था
अब तू ही बता मै क्या चाहूँ............

कैसे दुनिया में जीवन जियें
पग पग पर ठोकर ना खाएं
तुने हर बात का ध्यान धरा
हमे कभी कोई दुःख ना पायें
हर पग पर तू था संग मेरे
तुने पिता का रूप संभाला था
अब तू ही बता मै क्या चाहूँ ...........

किससे कैसे हम बात करें
हम बड़ों को कैसे माथ धरें
स्वभाव हमारा हो कैसा
जग में हम कैसे नाम करें
हमे उस सांचे में ढालने को
तुने गुरु का रूप संभाला था
अब तू ही बता मै क्या चाहूँ..............

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

शान्ति

मन क्यों उदास है
ऐसा क्या पाया उसने
जो ना मेरे पास है

विलासता मेरे सम्मुख
धन भरा अपरम्पार है
आम सोच से परे
फैला ये व्यापार है

ढूँढता फिरे मन और किसे
घूम घूम आ मस्तक घिसे

वो कहे सब है पर वो नही
बिना पाए जीवन निराश है

इस पहेली से फिरा मै जूझता
रहा एकांकी मै सभी से पूछता
पूर्ण सुख, क्या ना मेरे पास है
सच है मुझे शान्ति की तलाश है

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

चेतना

वेदना की चेतना को भेदना
लक्ष्य है जियूं बिन संवेदना
रिश्तों की लम्बी लड़ी संग
जीवन पर हो कभी खेदना
पास रहूँ पर कुछ तो दुरी हो
दूसरों का कांधा ना धुरी हो
सागर संग पांवू गहराइयाँ
जहाँ छपूँ वहां चाहूँ हो रेतना
कोमल हो वाणी इस ह्रदय से
जो बांधे समस्त जग को कसे
एक जग साथ पग मिलके बढ़ें
चाहूँ यही सूत्र करे कभी भेदना                    
 
 

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

इश्के दरिया

प्याला भरा है  सामने, यारों आओ अंजाम दो
राजीव इश्के दरिया ये चूमो डुबो और जान दो

वो जिनसे सब मिलने को तरसते हैं
हम हैं जो उनकी आँखों में बसते हैं

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

प्रकृति बचाओ

निहार सुन्दरता धरा की
सपनो का तानाबाना बुना 
रंग हरा संजोयें हम कैसे 
ना ही कोई माध्यम चुना
पर्वतों  की रक्षक श्रंखलायें 
लुप्त हो धरा को नग्न कर
हमे हर पल चेताएँ जा रही
बस बहुत हुआ अब बस कर
क्यूँ दे घाव धरती का सीना 
मातृत्व को तू लज्जाता है  
तेरे अपने आयें पायेंगे क्या  
सोच क्यूँ तू व्यर्थ गवांता है
जल को जला रसायन बना  
कब तक तू उपर उड़ा पाएगा        
बादल जो जल भर लाते हैं  
उनको भी वंचित करवाएगा 
बिन भेदभाव जो वो बरसाते    
उनमे क्या स्वार्थ जगायेगा 
जंगल सागर कुएं की गागर 
सब कुछ तू यूँ ही गँवाएगा 
प्राकृतिक जो तू मुफ्त पाता 
कृत्रिम कर दे जग जायेगा 
राजीव संभल कर चल प्यारे    
अन्यथा करनी को पछतायेगा  

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

ओशो

ओशो बस एक नाम नहीं 
उस नाम मे छिपा धाम है 
मुक्ति का एक मार्ग है वो
मद मस्त जीवन जाम है

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

बापू तेरा हिंद

देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को
बढती हुई अत्याचारी महंगाई तूफान को
आजाद हिंद के टुकड़े देखो हो रहे हैं बार बार
भाई भाई पर करने को तैयार खड़ा है अत्याचार
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को................
विरोधी ताकतें लडवा रही हैं, हिंद की हर जुबान को
नशे की दुनिया खाए जा रही, आज के नौजवान को
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को...............
दहेज़ का दानव मुह फाड़े है, आज के हिंदुस्तान में
बहुओं का संघार हो रहा, आग के इस अभियान में
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को................
जग में अपना नाम है छाया, देखो इस विज्ञान को
भ्रष्टाचारी की माहामारी, निगले अपनी शान को
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को................
गांधीगिरी का सपना देखे मुन्ना भाई चलचित्र पर 
पर गाँधी के दिए आदर्श ना देखे किसी चरित्र पर 
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को................
वैष्णव जन तू उनको कहता जो पीर पराई जाने रे  
आज के युग का मानव पीर संग मार कुटाई माने रे 
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को................
खादी जो तू छोड़ गया था अब भी तह कर रखी है 
पाँच वर्ष में एक बार सीमा नेता ने तय कर रखी है 
देख रहा है बापू तू अपने हिंदुस्तान को................
    

सोमवार, 27 सितंबर 2010

नन्हे नन्हे

तुने नन्हे नन्हे हाथ दिए हैं
उनसे कैसे तुझको पाऊं मैं

पवन चले जब भी बसंती
लहलहाती खेत सरसों के
चुनरी उड़ उड़ जगह छोड़े
कैदी मन अंदर यूँ मचले 
कैसे पकड़ बाहर उडाऊं मैं

पहली किरण से बाबा सूरज
जब लगे नैनों को चमकाने
चाहूँ मुट्ठी में उन्हें लिपटाना
चंचल खेलें खेल आवे जावे 
कैसे उन्हें कस कर दबाऊं मैं 

नदिया की हर लहर पुकारे
बैठ बतियाता उस किनारे
लहरें गातीं यूँ गीत हर पल
जीवन जीता सरगम सहारे
सरगमी लहरें कैसे लाऊं मैं

चंदा मस्त हो चांदनी संग
कर ठिठोली फिर इतराए
प्रेम की अपनी भाषा बोले
हमे शीतलता मे नहलाये
कैसे प्रेम मधुरता पाऊं मैं

तुने नन्हे नन्हे हाथ दिए हैं
उनसे कैसे तुझको पाऊं मैं

शनिवार, 25 सितंबर 2010

पूरी तैयारी?

गोली चली कार फटे
विदेशी खेलों से हटे
कम खिलाडी जीत हमारी
अब समझे पूरी तैयारी?

खरीद सस्ती किराया भारी
खाना पूर्ति पृष्ठों पर हमारी
धरती के हम बोझ हैं भारी
पाओ दर्शन हम भ्रष्टाचारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

ये संजोग आगे बढने का
हर पदक घर में रखने का
डेंगू , गुनिया से रिश्तें अपने
चाहें खेलें कम असल खिलाडी
अब समझे पूरी तैयारी ?

पुल बनाए गाँव बसाए
समय से पहले यदि गिर जाएँ
बचाया बांटे जो बुलाए समिति
फूटी किस्मत की लाचारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

प्रभु सुबह शाम यही प्रार्थना
इस  बार पदक हमे ही बाटना,
प्रतियोगी आएं पाएं बीमारी
चाहे  सरकार रहे ना रहे हमारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

अतिथि देवो भव:,
अतिथि देव रहें सुरक्षित
आने से तुम उनको रोको
ना  हो कलंकित धरा हमारी
अब समझे पूरी तैयारी ?

सुनते हम दिल्ली मेरी शान
घोंट गला, निकलने को जान
सुर में हो या बेसुर ज्ञान
पर गाती मुखिया हमारी
हमारी है पूरी तैयारी?

सोमवार, 20 सितंबर 2010

सुखद सपना

हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं
मानवता का पूज्य वो भगवान देखना चाहतें हैं

धर्म कर्म हो अपने साँझा, ना लगे किसी को ठेस
अपना हो एक ऐसा देश, जिसमे हो लुभावने वेश
रंग बिरंगी चाहतों का आकाश देखना चाहते हैं
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

बोलें हम ऐसी बोली, ना झगडा हो ना चले गोली
दुश्मन ना कोई उपजे, लगे फसल प्रेम की बोली
एक ऐसा अपना प्यारा, किसान देखना चाहतें हैं
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

स्वतंत्र हो हर इन्सान, परिंदों को हो आसमान
दूर तक फैलाए महक, ऐसे फूलों का गुलिस्तान
ना कांटे ना चुभन, बागबान एक ऐसा चाहते हैं
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

आदर प्रेम और दुलार, पायें बांटे बस हम प्यार
हर तरफ हो खुशियाँ, मुस्काता हो अपना संसार 
नफरतों की जड़ मिटाए, फिर चाणक्य चाहते हैं 
हम इंसान हैं इंसान को इंसान देखना चाहतें हैं......

मायने

शब्द कोष मे शब्द पढ़े थे
सुंदर वाक्यों मे भी जड़े थे
आज मायने पूछने उनके
जब कोई मुझ तक आता है
मै उम्र के इस पड़ाव मे
उनको विस्तृत समझाता हूँ

हम उस युग मे जो भी पढ़ते थे
उसे अपने जीवन संग गढ़ते थे
तब लिखे के मायने असल थे
चरित्र मे डूबे, दर्शाते अमल थे
आज कठिन लगते हैं मायने
गुरु भी ढूंढें, समझाने के बहाने

तब प्रेम प्रेम, और द्वेष द्वेष था
आज प्रेम द्वेष का मायने  एक  
जो झलकावे अधूरी शिक्षा है पाई
तख्ती कलम खोए सूखी रोशनाई
सीख सीखी तब रखना चाहूँ याद
मायने वही जिसमे ना हो अपवाद 

रविवार, 19 सितंबर 2010

बिन बोले

गया दूर, सपने अधूरे, एक याद बाकी रह गई
सारी आशाएँ, मन की इच्छाएँ, मन मे रह गई
दो तनो को जोड़ने का, अनोखा बंधन होते तुम
तरसते कान, बरसती आँखें, ये बिछोड सह गई
हर कोई पूछता है तुम आकर भी क्यूँ  ना दिखे
हम चुप रहे पर आँखे बिन बोले ही सब  कह गई     
  

पुस्तकें

पुस्तकें नयी आतीं थीं
जो बड़ा होता उसे दी जाती थी   
ना फटे कटे ना धागे छटे
शर्तें साथ लगाई जाती थी
पुस्तक को माता समझ 
हम बार बार सिर से लगाते 
चाहें कसम तुम कोई खिलाओ 
पर विद्या माँ की कसम ना खाते
एक  आती सारे पढ़ जाते 
उसके बाद यादें संजो आते 
जिनको पढ़ हम यहाँ हैं आए 
आलस्य बने आविष्कार छाए 
वही अपनी खोजें देखो 
पुस्तक को चबा रही हैं 
धीरे धीरे लुप्त कर उन्हें 
अंधेरों मे दबा रही हैं 

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

आज़ाद प्रक्रति

ज़िंदगी जलती नहीं
जला दी जाती है
साँसे यूँ बहती नही
बहा दी जाती है
सूखी रहती हैं आँखे
चाहें जो उम्र हो
तालाब बन ना सड़ें आंसूं
नदी उनकी बहाई जाती है 
प्रेम तरसता है
फैलने को
फैलता नहीं
बाँध दिया जाता है
नफरत रुकना चाहती है
पर उसका अपना मकान नहीं
कभी इसके घर कभी उसके घर
ठहरा दी जाती है 
स्वतंत्र हम
परतंत्र सच
क्या प्रक्रति कभी
आज़ादी मनाती है 

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

पड़ाव


आना जाना लगा रहा
यही धरा की परम्परा 
क्या है जो बस है आता
जा कर भी न जा पाता
ना नाम ना गॉंव ना काम 
ना बाम ना चाम ना धाम
चलो चलें हम ढूंढने
उस शिखर को चूमने 
जहाँ मिले एक ठहराव  
जो ठहरे पावुं पड़ाव   

कब तक

अन्धो का शहर
चश्मों का व्यापार
बघिरों की बस्ती
सरगम की बोछार
गुंगो का मोहल्ला
उठे शब्दों का हल्ला
बेहाथ सभी साथ
मिलाते दोस्ती का हाथ
पैर गंवा कर वो दिखे
भौतिक दौड़ मे दौड़ते
पर कब तक तरसेंगी
मेरी चाहत अंदर ही
असल मुझे असल सा
मिले बूँद या समुन्द्र ही
दिखे वो जो सब करें
जो सब करने के काबिल          

रविवार, 12 सितंबर 2010

लाडो क्षमा

हंसी संजोये होठों पर
रखती आँखों मे वो पानी
मन मे सपने लिए अनोखे
वो पाले थी पेट मे रानी
अपनी अभी पुरुषार्थ दिखा वो
कह गए, बाहर कभी ना आए
पुरुष जना, जो बाहर खेले
आये तो बस पुरुष ही आए
अपनी लाडो पर हाथ रखे वो
सूखी आँखों से झांक बोली
लाडो जन कर पुरुष को हमने
नारी पर ये स्थिती बो ली
लाडो क्षमा मै तुझसे मांगू
 कर क्षमा तू माई को
 दोष यदि कोई मेरा बच्ची
क्षमा पुरुष की जाई को
तभी हुई एक अजब कहानी
पेट से सुनाई दी जुबानी
माँ थोड़ी तू हिम्मत रख
मेरे आगमन का दर्द भी चख
फिर तू देखेगी ये बेटी
प्रेम प्यार से हरेगी हेठी     
माँ देख तू भाई को
उसकी सूनी  कलाई को
भाई भी मुझको है चाहता  
छुप छुप आंख में पानी लाता 
तू कहती बापू न चाहता
बाप बिना कोई कैसे आता
दादी बुआ तुझे जो  कहती
अंदर मै सब सुनती रहती
तू उनको क्यूँ न समझती
 उनकी भी है नार्री जाती
जो वो दुनिया में न होती
वंश के बीज किस में बोती
दादा आया दादी लाया
बापू आया तुझे था लाया
काहे ये समझे ना कोई
हमने ही ये वंश बढाया
क्यूँ सीता चली थी अग्नि पर
क्यूँ द्रोपती पर पांचो का साया
गांधारी ने क्यूँ पट्टी बाँधी
क्यूँ सती का धर्म था छाया
हर प्रश्न का उत्तर तू पाए
पुरुष कम, सब नारी से आए
अब लगे समय वो आया
नारी को नारी ना भाए
चल उठ खड़ी हो अब तू
 बजा बिगुल उद्घोषणा कर तू
धरती करे बस वो ही पैदा
जिसका बीज उसमे जो बोवे
गर नारी अब बाँझ हो गई
समस्त धरा धराशाही होवे
अब सुधर तू अब सुधर
ओ समाज आवेगी लाज
एक दिन ऐसा आवेगा
एक ही जैसे दो जन मिलकर
ना पैदा कर पावेगा
रिश्तों का कर अंत
तू अपनों पर नज़र गडायेगा
फिर बस तू पछ्तावेगा
जब तेरा खेत चुगा जावेगा
जब तेरा खेत चुगा जावेगा


शनिवार, 4 सितंबर 2010

देखा है

मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है
जहाँ कोई खड़ा ना हो उस छोर से देखा है

पथ की बाधाओं से लड़ते पैरों को देखा है
बिन पैरों  चलते हमने लंगड़ो को देखा है

दो हाथों को जूझते हमने लहरों से देखा है
जिनके ना थे हाथ उन्हें तरते हुए देखा है

जहाँ गूंगे हमे कठिन शब्द बोलते दीखे
वहां जुबाँ वालों की जुबाँ पर ताले दीखे

आवाज दिल की सुन बधिर झूमते दीखे
सुनने वालों को सुन कर बहरा होते देखा

जग को मैंने समस्त उल्टा पलटा देखा है
सीधा चलो कहें हमेशा उल्टा चलें देखा है

मैंने ज़िंदगी कैसे जियें बड़े गौर से देखा है           

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

गुरु

पूजन को संसार मे गुरु से बड़ा ना कोई
लुटाता रहे ज्ञान धन, पर कंगला ना होई

पढ़ा लिखा हो मानव, वो ही गुरु ना कहावे
अनपढ़ जो देवे शिक्षा गुरु की श्रेणी में आवे

जो मै चाहूँ बैठ लिखूं, गुरु की परिभाषा क्या
मूर्खों का राजा दिखूं, सूर्य चमकीला करूँ बयाँ  

पूजन को संसार मे गुरु से बड़ा ना कोई
राजीव लुटावे ज्ञान धन लूट सके ना कोई

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

चमन

ना रोंदो चमन को
ये चमन हमारा है
हर जात का फूल
चमन को प्यारा है

फूलों को जिसने तोडा
शुलों ने ना है छोड़ा
ये फूल और शूल का
तो साथ ही न्यारा है 

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

1

गर तुम न हंसोगे तो
दुनिया वीरान होगी
इस चमकते सूरज मे
एक ढलती शाम होगी

एक हल्की सी हंसी जो
आएगी तेरे लब पर
उस लब को चूम लूँगा
हर गम से मै झगड़ के
इस दिल की उस गली मे
फिर जश्ने शाम होगी
गर तुम न हंसोगे तो, दुनिया वीरान होगी 

देने को हर ख़ुशी मै 
घूमा फिरा था हर दम 
देखूं मै कैसे छाया 
चेहरे पे तेरे यूँ गम 
गम की ये छायी बस्ती 
कब कत्ल ए आम होगी 
गर तुम न हंसोगे तो, दुनिया वीरान होगी  

अपनी तो बस दुआ ये 
खिलती रहे हमेशा 
तुझको न ये पता हो 
गम नाम होता कैसा 
खुशिओं की बारिशें ही
तुझ पर निसार होंगी 
गर तुम न हंसोगे तो, दुनिया वीरान होगी 

बिछोड

छोड़ के नाते तोड़ के बंधन
चला लिए वो काठ की गाड़ी
प्रतीक्षा माटी जल कर रहे
आगंतुक आगमन की तैयारी
अग्न लग्न को खड़ी ये सोचे
मिले यूँ ,न हो बिछोड हमारी
 

उम्मीद

कल उनसे मुलाकात होगी
बस आज की रात कट जाये

आवारा सी ज़िंदगी यूँ थी बनी
जैसे लहरें किनारे तक जाएँ

गर तुम्हारा सहारा न होता
तो सोचते गहरे डूब मर जायं

आँखों मे तुम्हारा चेहरा रहता है
नास्तिक नहीं पर मंदिर क्यूँ जाएँ

कसूर क्या था राजीव ये बता
क्यूँ बिछड़े पूछें और चले जाएँ

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

अभियुक्त

ये क्या हुआ मुझे,
मै हवा में हूँ
और धरती पर भी
क्यूँ ऐसे सपने आते हैं
अपने पर क्रोधित हुआ अभी 
वजन मेरा कोई कम न था
पर अचम्भित हुआ तभी
न उपर लग रहा, न धरा पर
लगता दोनों मे दम न था
फिर मेरा दम था कहाँ गया
न हवा मे न धरा पर
फिर वो कहाँ धरा गया

अरे ये कोलाहल कैसा
सब खड़े धरा पर, मुझे घेरे क्यूँ
आपस मे क्यूँ बतिया रहे
अच्छा था पर चला गया
तो क्या उपर आत्मा
नीचे शरीर है
पर मेरा प्रश्न वही
जिस दम का दम भरा सदा
वो दम मेरा किधर गया
क्या उपर नीचे दोनों को मिलाकर
जो बनता उसको दम कहते हैं
या जो तैयार मुझे कर रहे
उनके दम पर दम भरा था

मै कन्धों पर
अपनी यात्रा का अंत देखता
स्वयं से ही जूझ रहा हूँ
जिनके दम पर दम भरा था
वो दम को निकला देख कर
पुरे दम खम से
मुझे  विलय करने निकल पड़े थे
जो वातानुकूलित का आदि था
वो पिंघलता जाता है
अभी कुछ अंश बाकि थे
पर बाट जोहने से भी कुछ न होगा
चलो ये तो चला गया
अब हम भी जाते है
छोड़ मुझे कुदरत संग
कुछ ऐसा बतलातें हैं
घर किसके हिस्से आएगा
पैसा कहाँ धरा था इसने
ढूंढ के बांटा जायेगा
तो जिसको बनाने की खातिर
मै लगा रहा, वो उनका था
तब मेरा क्या था धरती पर
संग कुछ भी न ला पाया था
जब कुछ मुझको लाना न था
फिर मेरा मेरा क्यूँ किया
यदि सब उनके लिए सम्भाला था
चलो आज मै उनसे मुक्त हुआ

चल जो सजा देनी है दे
तेरा मै अभियुक्त हुआ

रविवार, 8 अगस्त 2010

राष्ट्र की पहचान

हमको अपने देश पे मान यहाँ मिले अधात्म का ज्ञान
हर धर्म के लोग यहाँ पर हर धर्म है ज्ञान की खान
धर्म कर्म से हमने पाया भारत को शिखर पर पहुँचाया
अनेक भाषा, अनेक धर्मो ने मिलकर हिंदुस्तान बनाया


आओ करे हम उनकी बात जो हैं इंडिया को दर्शाते
सब में से एक एक को चुनकर राष्ट्र संग का दर्जा पाते


देखो मै जंगल का राजा, हिम्मत है तो सामने आजा
मुझसे सारा जग डरता है मेरे समक्ष पानी भरता है 
मुझसे तेज न कोई भागे, करूँ शिकार पहुंच के आगे
अब हम जंगल में थोड़े हैं डर कर अपने घर छोड़े है 
अपनी न है कोई औकात मानव मारे  रख कर घात


मै हूँ मोर आपका देखो, सावन आता मै खो जाता
भूल के मै पैरों की बात नाचता झूमता सारी रात
मेरे अग्रज अब न चाहे करूँ मै मानव के संग बात
वो कहते स्वार्थ है छाया मानव भर कर गोली लाया 
किसी भी क्षण वो करेगा घात, क्या सुनाऊ तुमको बात


मै हूँ नन्हा मुन्ना फूल, कमल नाम तुम गये क्यों भूल
मै कीचड़ मे हूँ  खिलता  हर स्थान पर नहीं मै मिलता
जो मुझको नुक्सान पहुंचाए उसको शर्म बहूत ही आये
कीचड़ में जो भी उतरेगा मुख तन कीचड़ कीच मलेगा
कीचड़ ही है मेरा निवास फटके न कोई डर के  पास


ओ हमारे हिंद के वासी क्या कहें हम बात ज़रा सी
हमको भी जीने का हक है हिंद में रहने का हक है
हम बढ़ाते हिंद की शान हिंद के राष्ट्रीय  सम्मान
न मारो हमे तुम इन्सान हम भी अपने राष्ट्र की जान

लिखा

लेखन लिख लिख सब गए, लिखा कभी  नहीं  जाये
जो लिखा पढ़ तुम भी लिखो लिखा सफल हो जाये

चल पड़े

संगी साथी सब चल पड़े चले मंजिल की ओर 
एक एक कर बिछड़ने लगे समीप ही मेरी ठोर


दोस्तों की भीड़ न थी, जो हैं वो कम होते गए
होश आया तो पाया,  हम हम से हम होते गए  

बुधवार, 4 अगस्त 2010

पानी


चला चला मै यू चला
लिए वो धुन, अपनी ही सुन
न कोई संग बिना डगर
चला चला मै यू चला

जो भी मिला, वो मिल गया
बिना कहे, बिना रुके
लिए उसे अपने ही संग
प्रवतों को चीरकर घाटीओ में कूदता
बस आँख अपनी मूंदकर
जिधर मिला उधर चला
चला चला मै यू चला 

अपनी अनोखी राह थी
न बाम की न गाँव की
अपनी न कोई चाह थी
धरा की प्यास को बुझा
जिसने चाहा उसे मिला
इधर मिला उधर मिला
चला चला मै यू चला

झरना नदी नाला बना
सागरों को जोश बना
बादलों का शोर  बना
बाढ़ का प्रकोप बना
क्रोधित हो विनाश बना
सूखे को ग्रास बना
चला चला मै यू चला

गोरी की गागरों में
प्यासों की प्यास बुझा 
कहीं मीठा नमकीन बना
जिससे मिला वैसा बना
कर नालो को भरा भरा
नदिया में वो लहर उठा
चला चला मै यू चला

अलग अलग नाम मिले
अलग अलग गाँव मिले
बालकों का खेल बना
खेतों को खिला खिला
कल कल की वो धुन बजा
पर थक कर नहीं मै थमा
चला चला मै यू चला

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

मौत

मौत
जिंदगी को तू कब तक ढोना चाहेगी
समय समय
पर उसको छध्म बाग़ दिखाएगी
बेचारी जिंदगी,
तेरे चुंगल से कब छुट पायेगी
राजीव बता इसे
एक दिन ये सवयं मौत बन जायगी

तेरे न है

ओ पथिक पथ पर मिलने वाले
तेरे न  है बस याद रख
मंजिल तेरी दूर अभी
बस चलता चल तू अपने पथ

राहों में तुझे छलने वाले
हर पग पर  तुझे ललचायेंगे
मंजिल तेरी जो मंजिल नहीं
उस मंजिल की ओर ले जायेंगे 
ओ पथिक पथ पर मिलने वाले..............


सबकी मंजिल है अलग अलग
पाते ही सब छोड़ जायेंगे
राहें तेरी डगमग होंगी
पथ जगमग सा दिखलायेंगे 
ओ पथिक पथ पर मिलने वाले..............

इनसे बढ़के कोई मीत नहीं
इनके सुर सा कोई गीत नहीं
ये भटकाने तुझे मंजिल से
रेतीली तृष्णा जगायेंगे
ओ पथिक पथ पर मिलने वाले..............

जिस पथ पर तू है निकल पड़ा
उस पथ पर ही तू चलता चल
जो मंजिल तू पाने निकला
उस मंजिल को तू पाजायेगा
ओ पथिक पथ पर मिलने वाले..............

सोमवार, 2 अगस्त 2010

मत दिख थका

ता उम्र धकेला था जीवन
अब मंजिल की सुध आई
चलने से पहले दिखे थका
चल अब तो चलना  है भाई

पथरीले पथ चलते विरले
तू उन विरलों में एक बन
राह के राहगीर दिखेंगे तुझे
तू राह तेरी अपनी ही चुन

मंजिल है सबकी अलग अलग
तुझे अपनी मंजिल ही जाना है
राहगीरों की उस भीड़ में भी
तुझे अपना जहान बसना है

देखना, सुनना तुझे सबको है
पर तुझे तेरा ही राग बनना है
राहगीरों राह के भटके जो मिले
पर तुझे ढूँढना तेरा ठिकाना है

तू पा लेगा ये तुझे है पता
अब चल मंजिल की ओर तू
चाहे धुप जले या सांझ ढले
चल पथिक पायेगा भोर तू

अब चल तुझको बस चलना है
मंजिल चलके है कब आई
चलने से पहले मत दिख थका
चल अब तो चलना है भाई

शनिवार, 31 जुलाई 2010

प्रदुषण

चटर पटर करते पटाखे
कितना शोर करते पटाखे
चारों ओर धुआं ही धुआं
दूषित हवा करते पटाखे


मल को जल में मत मिला
जल के संग जीवन  होए
मल जल दलदल बने तो
जीवित बचा नहीं कोई

बुधवार, 28 जुलाई 2010

गोज

आया पाया पोतड़ा
गया कफ़न के संग
जीवन पूरा कर गया
कमाया खूब बे अंत

जो कमाया यहीं रहा
छूटा देह का बोझ
ना पोतड़ा जगह मिली
ना कफ़न में कोई गोज

प्रेम

वो जो कहे चाँद तो मै चाँद तोड़ लाऊं
सूरज की मांग करे किरणों समेत लाऊं
पर वो मांगे प्रेम है मै प्रेम कहाँ से लाऊं
प्रेम आंतरिक अनुभूति है ये कैसे समझाऊं

विचार

गंगा नहाये पाप धुले, साबुन धोये मैल |
ऐसो कलंक ना पाइओ, ना छुटे कहूँ गैल ||

मौत आ जाये तो मैं जिंदगी पाऊं |
मरने की चाहत मैं जिए चला जाऊं ||

मन को भँवरा बना के काहे ढूंढे फूल|
खुशबु तेरे तन छुपे काहे फांके चूल ||

मन की नाव डोली फिरे, छोर नज़र ना आये |
राजीव छोर भीतर छिपा काहे धुधन जाये ||

नारी को ना समझो तुम नारी है कितनी कमज़ोर |
नारी से ही नर जन्मता नर की शक्ति उसमे जोड़ ||

दर्द का मर्म ना जाने कोई हर ज़ख्म से इसका रिश्ता है |
कभी हलक से कभी पलक से पल पल पल पल रिसता है ||

मूक रहो तो जग समझे किता तोकू ज्ञान |
राजीव मुह खुलते ही खुले ज्ञानी को अज्ञान ||

मुस्कराहट तेरा क्या कहना |
स्वर्ग का एहसास तेरा बहना ||

धरती को तुम जितना खोदो जितना छेदों
कुछ ना कुछ ये देती है |
राजीव जाने का समय जब आये तो देखो
बाँहों में तुमेह भर लेती है ||

सुई से तलवार तक क्यूँ कोई जान ना पाए |
शब्दों में है क्या छुपा जो घाव गंभीर बनाय||

किती मानव भूल करे जोहे मौत की बात
मौत तो वाके संग रहे रूप बदल कर ठाट |
रूप बदल कर ठाट कबहू दबोचे तोकू
राजीव समझ यह सच अगर समझे तोकू ||

मेरी (बूंद) क्या बिसात जो सागर से मुकाबला करूँ |
पर सागर रखे ज्ञात मुझ बूंद से उसका अस्तित्व है ||

कैसा ये मोड़ आया
जिंदगी हो गई खड़ी
दूर होती जा रही
रिश्ते की हर लड़ी

मौत जिंदगी को तू कब तक ढोना चाहेगी
समय समय पर उसको छध्म बाग़ दिखाएगी
बेचारी जिंदगी तेरे चुंगल से कब छुट पायेगी
राजीव बता, एक दिन ये सवयं मौत बन जायगी

छदम भेष धारण किये, पल पल हमे ललचाये |
कभी ये जीवन कभी ये रिश्ते जोडन को मचलाए||

चक्षु घुमे चहुँ ओर देखे दुनिया सारी|
क्यूँ ना देखे तन जामे चक्षु उभारी||

राजीव देखे जग को जग कबहू अपना होई |
एक बार कर आँख बंद जग एक सपना होई ||

महक महक की सुनो कोई ज़ुबां नहीं होती
महक महकेगी कहाँ यह कभी नहीं कहती

थुल थुल बदन को देख कर ब्रह्म ताक़त का होय
राजीव मांस की यह गाड़ी एक पल मैं माटी होय

प्रेम तुझसे कब कहे कर तू उसका बखान
जो बखान हो प्रेम का वो व्यापार समान

रविवार, 25 जुलाई 2010

कवि कौन

भावनाओ को पिरो लता हूँ
इसलिए मै कवि  कहलाता हूँ
मंच पर जब बैठता

सुनने सुनाने यदा कदा
महान काव्य सागर में
स्वयं को अधूरा पाता हूँ


रस पढ़े छंद पढ़े
गद्य पद्य के द्वन्द पढ़े
लय में लिखूं सदा
मात्राओं का ज्ञान लिया
लिखने बैठूं उससे पहले
विषय को पूरा जान लिया


पर काव्य सागर में मैंने
ज्यूँ ही एक गोता लगया
अपने आप को अलग थलग
एक अजब संसार पाया
जो छपता है वो सुनता नहीं
जो सुनता हूँ वो दीखता नहीं
जो पसंद है वो कहीं कहीं
प्रकाशक की पसंद सही


एक प्रशन मुझमे उमड़ रहा
असहनीय न जाये सहा
क्या कवियों की कतार में
वही कवि कहलाता है
जो जीवन जीता कुछ अलग
और कुछ अलग लिख पाता है


क्या दोहरा जीवन जीने वाला
काव्य सही रच पाता है
आँख और ह्रदय मूँद कर
जीवन समझ वो पाता है
मै जो सहता हूँ वो लिखता हूँ
इसलिए नहीं मै चल पाता हूँ

पर जैसे तैसे जोड़कर
लिखता हूँ और सुनाता हूँ
और बिना छपे किसी वरके पर
मै भी कवि कहलाता हूँ

शनिवार, 24 जुलाई 2010

बोली

राजीव शर्मा आकर बोले
माँ मेरा भी मनुवा डोले
चक्कर कुछ ऐसा चला दो
मेरा भी तुम विवाह रचा दो
अच्छी हो चाहे मैली कुचली
तनख्वा हो छ अंको वाली
ससुर हो अच्छे पैसे वाला
न हो कोई साली साला
एक बिन भरा चेक हो साथ
लड़के का खर्चा हो साथ
गैस सिलेंडर गाड़ी बंगला
नहीं दिखूं मै उससे कंगला
यदि ये सब देने में हो फेल
तो साथ ज़रूर दे मिटटी का तेल
दहेज़ हमे कुछ न चाहिए
बिकाऊ है वर खरीदार चाहिए
जोहनी पड़े न कोई बाट
पत्र वयेव्हार का पता शमशान घाट

रविवार, 18 जुलाई 2010

कवि क्यों बना

पिताजी ने कहा
अरे मुर्ख क्यों कवि बनता है तुझे पता है कवि हमेशा भूखों मरता है
और तुझे कौन कवि सम्मेलन में बुलाएगा
अगर बुलाया भी तो खुद भी पिटेगा उसे भी पिटवाएगा
मैंने उनसे कहा
आपको क्या पता मै कवि बनके क्या करूंगा
मेरा तीर एक है शिकार अनेक करूंगा
पैसे संयोजक से सब्जी श्रोताओं से
टूटी पुरानी चप्पलों का व्यापार करूंगा

सोमवार, 21 जून 2010

भ्रमित जीवन

हर क्षण मानव एक भ्रमित जीवन में पलता
सचाई से दूर स्वयं अपने आप को चलता
सुख सुविधायं साथी सारे
क्षण भंगुर के नाती प्यारे
खाली हाथ आया पथिक तू
खाली हाथ ही चलता
हर क्षण मानव एक भ्रमित जीवन में पलता

रविवार, 20 जून 2010

कहानी शरीर की

आत्मा के अमर होते ही
भस्म हो गया शरीर
संग पानी के डोलता फिरा
चंचल मानव शरीर

लिया इस जल को खींच
जड़ों ने, वृक्षों पौधों के
बदली भस्म पुष्पों फलों
वनस्पतिओं में

भोजन स्वरुप वनस्पति को
किया ग्रहण दम्पति ने
यज्ञ किये शरीर में
आत्माओं ने

बदल रूप आई भस्म
रक्त मांस के लघु कणों में
जुड़े वो कण बिंदु
गर्भ के क्षीर सागर में

पुन रूप बदल आई भस्मी
लिए एक बालक का जीवन

शुक्रवार, 18 जून 2010

यही तो है आज का समाज

एक दूजे की करें बुराई
इसमें हमें दिखे भलाई
यह ही चमचागिरी का राज
यही तो है आज का समाज

झूठ से चलती दुनिया सारी
सच्चाई फिरती मारी मारी
यह है हमारा चरित्र आज
यही तो है आज का समाज

तेरी इज्जतबस मै उतारू
तुझको फिर भी मै धिकारून
यह है बचा भाईचारा आज
यही तो है आज का समाज

जो कुछ कहूँ ना रखूँ याद
खाऊ जीतने के बाद
यह है अपना नेता आज
यही तो है आज का समाज

रविवार, 6 जून 2010

वश

कहाँ के रिश्ते कहाँ के नाते
यहीं के सब हैं यहीं रह जाते
संसार एक मोहमाया जाल है
योगी इसमें कहाँ फँस पाते
तेरा जीवन तेरे करम पे
तुझे वश करना है बस मन पे
इसके जीते कब हारे जाते
कहाँ के रिश्ते कहाँ के नाते

आत्मकथा

लोग आत्मकथा लिखते है

क्या ऐसे हैं
जैसे वो लिखते हैं

या लिखने जैसा
वो सभी दीखते हैं

लोग आत्मकथा लिखते है

हमारा धर्म

आओ सुनाऊं तुमेह एक कहानी
राम रहीम की थी दोस्ती पुरानी
चक्रम घंचक्रम चक्कर में रहते थे
राम रहीम से लड़ते रहते थे
राम रहीम का बस ध्येय था पढना
सब को पछाड़ के आगे ही बढ़ना
चक्रम घंचक्रम नालायक थे बड़े
नफरत पाते रहते अलग थलग पड़े
चक्रम घंचक्रम ने चाल एक चली
राम रहीम पे फेंकी जात की डली
मच गई चहूँ ओर यह कैसी खलबली
सब तरफ दुआओं की एक हवा चली
राम रहीम न एक पाठ सिखाया
ईद और दीप को फिर मिल के मनाया
दोस्ती दोनों की मिसाल बन गई
चक्रम बन्धुओं की खिली उड़ गई
आओ उठाएं हम भी यह कसम
भारतीय हम हम सब एक धर्म
दोस्तों तुम भी सुनाना ये सबको कहानी
राम रहीम की थी दोस्ती पुरानी.....