कलम कवि की
कलम कवि की
रविवार, 8 अगस्त 2010
चल पड़े
संगी साथी सब चल पड़े चले मंजिल की ओर
एक एक कर बिछड़ने लगे समीप ही मेरी ठोर
दोस्तों की भीड़ न थी, जो हैं वो कम होते गए
होश आया तो पाया, हम हम से हम होते गए
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