शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

ना चाहूँ

अब और ना चाहूँ मै तुझसे
जो दिया मै उसे सम्भाले हूँ

नन्हे हाथों संग खेल कूद 
घुटनों चलता माटी मलता 
अपने इन पैरों के होते भी
बचपन में चल ना पाता था
तब तू ही रूप बदल आया 
तुने माँ बन मुझे चलाया था
अब तू ही बता मै क्या चाहूँ............

कैसे दुनिया में जीवन जियें
पग पग पर ठोकर ना खाएं
तुने हर बात का ध्यान धरा
हमे कभी कोई दुःख ना पायें
हर पग पर तू था संग मेरे
तुने पिता का रूप संभाला था
अब तू ही बता मै क्या चाहूँ ...........

किससे कैसे हम बात करें
हम बड़ों को कैसे माथ धरें
स्वभाव हमारा हो कैसा
जग में हम कैसे नाम करें
हमे उस सांचे में ढालने को
तुने गुरु का रूप संभाला था
अब तू ही बता मै क्या चाहूँ..............

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

समर्पण में आशा मध्यम हो जाती है।