मंगलवार, 7 जून 2011

चेतना

रात की खुमारी में 
कोयल सी घंटी टूनटूनाई   
समझ गया  
तुम आई 
तुम हर दिन 
दुल्हन की तरह 
सजी हुई आती हो 
सोतों को जगाने 
और मै 
जागते ही 
दिनचर्या में खो जाता हूँ  
जब होश संभलता है 
तुम जा चुकी होती हो 
और मै फिर सो जाता हूँ
एक शंका 
जिस दिन से तुम न आई
उस दिन से 
दिन न निकलेगा 
और 
जहान सोता ही रह जायेगा    

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन सूना तो दिन भी रात,
कौन करेगा हमसे बात।

अनूषा ने कहा…

शंका बेमानी कहाँ? इस समूचे विश्व में कई सारी छोटी छोटी दुनिया हैं, जिनके बाशिंदों की चेतना जैसे सो गई है... वे जागकर भी सो रहे हैं.
आपकी कविता की प्रतीकात्मकता बहुत पसंद आई.