आज भीतर जब झाँका
धूल पुस्तकें दबा
रही थी
उनमे छपी हर
व्याख्या
डरी सहमी सी पड़ी थी
बाबा पुस्तकें
पुरानी है
मै चौंका, आवाज़ सहम
गई
माँ कहती है, धीमे
स्वर बोला
बात संभाली और समझाई
बिलकुल नई बस थोड़ी
धुल तले सोयी
भीतर छपे ज्ञान की
परिभाषा न खोई
कबाड़ी वाला इसका बस
रुपैया देता है
वो कीमती ज्ञान नही
बस वर्के लेता है
झुर्रियों संग इंसान
रिश्ता न खोता है
पूत कपूत ही सोने के
अंडे खोता है
लगातार उपयोग से रोज
नया पाओगे
धुल के कण जो पड़े
बुद्धि में
ला कबाड़ी अपनी
प्रगति गंवाओगे
सोचकर अब उपयोग नही
फटा पुराना मत
ठुकराना
झुर्रियां देख किसी
को न सताना
क्योंकि आने वाले कल
तुमेह उस रास्ते है जाना
तभी मंझली एक कड़क
आवाज भीतर से आई
दादा पोते हुए मौन
करने लगे सफाई
मुख धरती को पुस्तक
पर कपडा
चलो चलो धुल हटानी
है
हाँ बेटा जल्दी इसे
फेंको
ये पुस्तकें बहुत
पुरानी है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें