शनिवार, 27 अगस्त 2011

कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

सूरज की चमक है चहुँ ओर
दिखती है दूर कुछ अपनी ठौर 
पर ठोकर खाते हैं ये कदम
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै 

चलने से पहले था देखा भाला
बढ़ें जो कदम बिन रोड़ा छाला
अब जब डगमग से हो चलें 
कैसे कदमताल मिलाऊं मै 
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

नन्हे नन्हे थे जब अपने पग
चिंतामुक्त उड़ाते थे धूल तब 
अग्रज बताते उठाते चलाते सब 
वो अग्रज अब कहाँ पर पाऊं मै 
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

स्वयं ही मंजिल स्वयं ही कदम 
स्वयं का सपना स्वयं पायें हम 
छाप कदम की उन सब के लिए 
जो दिखाएँ राह कैसे उठाऊं मै
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रोशनी मिलेगी,
राह बनेगी।