सूरज की चमक है चहुँ ओर
दिखती है दूर कुछ अपनी ठौर
पर ठोकर खाते हैं ये कदम
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै
चलने से पहले था देखा भाला
बढ़ें जो कदम बिन रोड़ा छाला
अब जब डगमग से हो चलें
कैसे कदमताल मिलाऊं मै
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै
नन्हे नन्हे थे जब अपने पग
चिंतामुक्त उड़ाते थे धूल तब
अग्रज बताते उठाते चलाते सब
वो अग्रज अब कहाँ पर पाऊं मै
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै
स्वयं ही मंजिल स्वयं ही कदम
स्वयं का सपना स्वयं पायें हम
छाप कदम की उन सब के लिए
जो दिखाएँ राह कैसे उठाऊं मै
कहाँ से और रौशनी लाऊं मै
1 टिप्पणी:
रोशनी मिलेगी,
राह बनेगी।
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