जीवन ने चाहा मोक्ष हो
पर अभी कर्म कुछ बाकि थे
मोह माया से मुक्त हम हो
पर प्रेम धर्म कुछ बाकि थे
एक छाया प्रेम की दिखी
हम छाया के हो लिए
छाया हमे छाया ही मिली
हम आँख खुली सो लिए
अब जीतने की जीत में
जो जीता हमने खो लिए
प्रेमधर्म सोचा था बाकि
जो था वो भी संग खो लिए
मोक्ष की चाह बस चाह थी
प्रेमधर्म की लुप्त राह थी
जीता जो अपने दिल को
पाया वो मोक्ष की राह थी
1 टिप्पणी:
मोक्ष की चाह न जाने किन मार्गों से जाकर तृप्त होती है।
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