सोमवार, 29 अगस्त 2011

मोक्ष

जीवन ने चाहा मोक्ष हो 
पर अभी कर्म कुछ बाकि थे 
मोह माया से मुक्त हम हो
पर प्रेम धर्म कुछ बाकि थे

एक छाया प्रेम की दिखी 
हम छाया के हो लिए 
छाया हमे छाया ही मिली 
हम आँख खुली सो लिए

अब जीतने की जीत में 
जो जीता हमने खो लिए
प्रेमधर्म सोचा था बाकि
जो था वो भी संग खो लिए 

मोक्ष की चाह बस चाह थी 
प्रेमधर्म की लुप्त राह थी 
जीता जो अपने दिल को 
पाया वो मोक्ष की राह थी

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मोक्ष की चाह न जाने किन मार्गों से जाकर तृप्त होती है।