सोमवार, 21 नवंबर 2011

झूठ का पर्दा

श्रद्धा सुमन चढाओ मुझ पर
कोई वन्दना गाओ मुझ पर
बड़ा बनने की चाह जगी है
चरण छू घमंड लाओ मुझ पर

मै नेता से न छोटा दीखता हूँ
कर्मो में न सम खोटा दीखता हूँ
जब वो पा सकता है पूजन तुमसे
वही श्रद्धा प्रेम लुटाओ मुझ पर

कर की करके चोरी जब धन्ना
विराजा जाता मुखिया सा अन्ना
बड़े बड़े चरणों में आते उसके
मुझको चिढ़ा हंसते हैं मुझ पर

पढ़ा लटक लटक कर बामुशकिल
कारण गुरु दक्षिणा न पाई मिल
पर सच बंद कमरे छुपा ही रहा
कोई झूठ का पर्दा चढाओ मुझ पर

बंद कमरे में मुझको तुम छेतो
चाहे कूड़ा कटका मुझ पर लपेटो  
पर एक भरे भवन चरणों में मेरे
तुम शीश झुका बहकाओ मुझ पर

आज मै जन्मा जिन्होंने कोसता हूँ
शिक्षा क्यूँ मानी पड़ा ये सोचता हूँ
उनको ये क्यूँ तब पता रहा नही था
सच सिखा जग हंसा गये वो मुझ पर 

आडम्बर में जीना अब हो चला ज़रूरी
झूठी बातें झूठा जीना बेहद है मजबूरी 
सच्चा नही तुम जैसा ही झूठा हूँ मै
पापी क्यूँ बनते उठा पाषाण अपने पर 
             

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपने सम्मुख सब ही नंगे..

Unknown ने कहा…

सुन्दर रचना।