फिर वही चिंगारियां बदल रही शोलों का रूप
फिर वही बिन तपन, बिन अग्न आई है धुप
चुलेह तरसेंगे यहाँ क्या दो वक्त की सेकने
बिलबिलाते पेट तरसेंगे कोई आए फेंकने
बहुत हुआ अब ये नजारा न चाहिए सामने
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने
दूसरों से उम्मीद रखने की वो आदत छोड़ दे
आयेगें हमको बचाने नीव सोच की तोड़ दें
आओ ढूंढे आग ये बार बार क्यूँ लग रही
अपाहिज होते ही क्यूँ चाह उनकी सज रही
कहीं आदत पड़ न जाए बैसाखी की थामने
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने
कहीं हर चिंगारी का उनसे कोई नाता नही
बिन स्वार्थ कौन किसी दूजे को बचाता नही
छुपे हुए उस शातिर को, कुचलना चाहिए
अब समय हुआ, चलो समय बदलना चाहिए
नये भौर के साथ, नई फंसलों को काटने
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने
प्रेम का संदेश वो हर बार देकर जाते हैं
धार्मिक भ्रांतियां का कारोबार दे जाते हैं
भाई भाई थे यहाँ भाई भाई से रहते थे
पर उन भाइयों में, भी नया भाई दे जाते हैं
हम ही बहुत है यहाँ, कोई आके देखे सामने
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने
छोडनी होगी आदत मध्यस्थ बैठाने की
घर के झगड़ों में राय उनकी मंगवाने की
अपना घर चलाना है तो हम ही चलाएंगे
क्यूँ उनकी शर्तों से चुलेह घर के जलाएंगे
गिरें नही सम्भलना है अब मंजिल नापने
उठो समय हुआ चलें हाथों में हाथ थामने
3 टिप्पणियां:
समाज को सहज सीख देती हुयी पंक्तियाँ।
khoobsoorat likhaa aapne shubhkaamnayen
:-) nice...
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