शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नई सोच

आज फिर सँवारने आया तुम्हारे सामने
गर्त की परते जमी बरसों तुम्हारे आंगने 
बुहारी पकड़े हाथ बुहारते हर और गार 
निश्चय मेरा ही सफल बढ़े हाथ थामने

जब तलक न होंगी परतें धुल की विलय 
जब तलक न होंगे झरोंखे हर घर के खुले 
तुम जो चाहो भी बदलना बदल सकते नही
हर ओर छाएगी उदासी मन में होगी कलह      

आज जब तितलियों ने लगाया अपना फेरा 
खुशिओं की दौलत बिखर गई अपने डेरा 
किलकारी से गूंजेगा जब अपना ये आशियाँ 
एक नई सोच होगी, खुशबु से महकेगा घेरा 

रूठ गया था बहुत दिनों बात लौटेगा बसंत 
शांत चर्र पर्र, बहुत दिनों बात चहकेगी चिरयं
ओ ख़ुशी दूर न जाना, मेरी बगिया हरी है 
इसमे आकर चहकना और खिलना खिलाना       

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

ओ ख़ुशी दूर न जाना, मेरी बगिया हरी है
इसमे आकर चहकना और खिलना खिलाना

वाह एक खूबसूरत काव्य बधाई

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बगिया सदा ही हरी रहे।

Pallavi saxena ने कहा…

प्रकर्तिक सौंदर्यता लिए भावपूर्ण अभिवक्ती
समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/