रविवार, 17 जुलाई 2011

अहसास अपने पास

आश्चर्य हुआ जब पाया एक अद्भुत अहसास
जिसको समझे एकांकी, ये भी था अपने पास

न थी वर्षा न सूरज की तपस मे दम
फिर भीगे कैसे हम
पाप का घड़ा जो दीखता न था
फूट चूका था
तन का हर अंग सराबोर हो उसमे
डूब चूका था

चक्षु मेरे ठीक ठाक हैं
पर अंदर कुछ रीड्कता रहता है
ये है मेरे अपनों का सुख
जो आँखों को न भाता है
अंदर ही अंदर घाव बन
अँधा हमे कर जाता है

सब कुछ पाया खूब कमाया
इतना की रख भी न पाया
आज चले जब अपनी राह तो
गठरी अपनी खाली थी
यहाँ का वहां काम जो आवे
बस वो नौकरी न ली थी

पढ़ते थे खूब प्रपत्र लिए
जो था पढ़ा बस उस संग जिए
आज जो पाया
वो था बोया
आदर, प्रेम, शील और मित्र
ये न थे अपने चरित्र   

घुटने अपने छिले पड़े थे
ये घाव पता नहीं कब मिले थे
अब ये जब नासूर बने है
सहने को मजबूर बने हैं
राजीव गिरे रहे जीवन भर
घाव बदबू उगल रहे थे 

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

घुटने अपने छिले पड़े थे
ये घाव पता नहीं कब मिले थे
behad samvedansheel rachna badhai

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एकाकी होने पर ही भास होता है कि हम एकाकी नहीं है।

बेनामी ने कहा…

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