गुरुवार, 28 जुलाई 2011

भेद प्रकृति

गर्मी पुरजोर बहता पसीना
लू के थपेड़े थपेड़  रहे थे
वृक्ष नहीं थे हिलते डुलते
पंछी सब खामोश पड़े थे

सूरज का था क्रोधित माह
धरती अग्नि के छाले पड़े थे 
ऐसे में चलना था कठिन
कपडे तन पर लिपट रहे थे

ऐसे में कुछ नन्हे देखो
नंगे पांव से दोड़ रहे थे
मौसम से वो अनजान
रुके वाहनों से चिपट रहे थे

उनके लिए नया नहीं था
लू चले, चले शीत लहर
बर्फ की वर्षा में बहे शहर  
या धरती पर टूटे कहर

लेट जमी पर खेल दिखाते
गोले में से थे आते जाते
विलासता से भरी गाड़ियाँ
बंद कांच में, दुरी बनाते

अनदेखा नन्हो को करते
नन्हे अन्दर की चाह बनाते
बिन बोले अन्दर क्या देखा
हँसते हँसते मांग रहे थे

कोई कुछ देता, कोई कुछ
कोई गाली से पेट था भरता
कोई आधा खाया फल देकर
अमीरी का था भाव बताता

अचरजी बात मगज को खाती 
क्या प्रकृति दोनों में भेद करती है  
क्यूँ लू बाहर वालों को कम
भीतर वाले को ज्यादा लगती है

क्या भूख बाहर वाले को कम
भीतर वाले को ज्यादा लगती है
क्यूँ छाले नंगे पावों में कम
जूते वालों को ज्यादा पडतें हैं

तुम भीतर वाले भीतर भीतर
क्यूँ घुटे घुटे दीखते रहते हो
बाहर वालों की देख हंसी
क्यूँ लूटे लूटे दीखते रहते हो

जिनके सहारे तुम जीते हो
उनपर भी जीना सीखो तुम
वो वो हैं तभी तुम तुम हो
अपना चीर सीना देखो तुम

बाहर भीतर के अंतर की
पीड़ा का अहसास होगा
बाहर दुखी हंसी तुमसे अच्छी
तुमको दोनों का पास होगा

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

उत्साह जगाती पंक्तियाँ।

Sam ने कहा…

straight from the heart..