ओ महान वृक्ष तुम
बता रहे खड़े खड़े
निःस्वार्थ स्वार्थी की
सेवा में रहे पड़े
बिन जल के पल रहे
धुप में यूँ जल रहे
हर कठिन समय सहा
तुम सदा अटल रहे
चाहत के शब्द से
दूरियां सदा रही
घाव हर पाषाण के
बिन रुदन सब सही
गुरु कोई न दिखा
जो गया तुम्हे सीखा
जीवन को जीने में
तुम ही तुम गुरु दिखे
मूक तुम बने रहे
जहाँ गड़े खड़े रहे
भिन्न भिन्न भांति भांति
पेट तुम भरे रहे
भेद कोई ना किया
जिसने माँगा सो दिया
कैसे मेरे देव तुमने
एकांकी ही सब जिया
2 टिप्पणियां:
जीवन का प्रतिमान।
आपकी भक्ति को नमन
आपकी कृति को नमन
नमन आपके प्रेरणा स्रोत को
नमन आपके निश्छल हृदय को
बहुत बहुत आभार आपका इस अनुपम प्रस्तुति के लिए.
मेरे ब्लॉग पर आयें,आपका हार्दिक स्वागत है.
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