सुबह सवेरे जल्दी उठकर
बच्चो संग बच्चा बन जाता
वो कांधे पानी को टांगे
और मै कांधे पर बस्ता लाता
वो शिक्षा पाने को जाते
मै खुद को शिक्षित था पाता
शिक्षा का महत्व बताने
सामाजिक दायित्व निभाता
जब भी कहीं अवसर मिलता
मै अपनी चालीसा स्वयं गाता
चंद चाहने वाले उकसाते
क्यूँ न मै मंत्रालय जाता
वहां स्थापित अस्थाई लोगों को
अपने से परिचय करवाता
आशा पाऊं समाजसुधारक
जैसा एक परिचय मै उनसे
जूते प्रतिदिन घिसने का
अपना ये नियम भी निभाता
आज गया तो बाबु बोला
बधाई साहिब मारा मैदान
तमगा मिलेगा हुआ ये पक्का
आपका पारित हुआ है नाम
मै भूल के अपनी दिनचर्या
बात मे बैठा छोड़ सब काम
आज बड़ा शुभ दिन ये आया
हर जिव्या पर अपना नाम पाया
समाज को देने निस्वार्थ शिक्षा
हम सम्मानित हो रहे थे
स्वयं को सबसे अच्छा बतलाकर
अपने आप को खो रहे थे
करने को अपना विज्ञापन
एक शाम हमने तय किया
चंद हाँ मे हाँ कहने वाले को
खाने पिने पर एकत्र किया
अपनी बड़ाई न छोड़ी कोई
बड़ बड़ाई हम सम न कोई
नन्हा जब पानी संग बर्फ लाया
हमने पढाई का महत्व समझाया
रात क्या हुआ था
क्या किसे कहा था
ये तो याद न था
पर नन्हा काम छोड़ चूका था
पत्नी ताना कस रही थी
अपनी तपस से बर्तन घस रही थी
समय न थमा न उम्र थमी
सरकारी कुर्सी न थमी
आज बिदाई दफ्तर से
नए अफसर को आना था
आँखे कमज़ोर
पर चेहरा लगा पुराना था
ज्यूँ ही वो झुका
आँखे फिर धोखा दे छलक गई
वो बोला बाबूजी नन्हे को शिक्षा आपकी थी
जो लग गई और आज आपके समक्ष झुक कर
नन्हे की शिक्षा पूरी हुई
आँखे सुखी दिल रोता था
वो बात तो अपनी बड़ाई थी
असली शिक्षा नन्हे ने नहीं
नन्हे से मैंने पाई थी
बच्चो संग बच्चा बन जाता
वो कांधे पानी को टांगे
और मै कांधे पर बस्ता लाता
वो शिक्षा पाने को जाते
मै खुद को शिक्षित था पाता
शिक्षा का महत्व बताने
सामाजिक दायित्व निभाता
जब भी कहीं अवसर मिलता
मै अपनी चालीसा स्वयं गाता
चंद चाहने वाले उकसाते
क्यूँ न मै मंत्रालय जाता
वहां स्थापित अस्थाई लोगों को
अपने से परिचय करवाता
आशा पाऊं समाजसुधारक
जैसा एक परिचय मै उनसे
जूते प्रतिदिन घिसने का
अपना ये नियम भी निभाता
आज गया तो बाबु बोला
बधाई साहिब मारा मैदान
तमगा मिलेगा हुआ ये पक्का
आपका पारित हुआ है नाम
मै भूल के अपनी दिनचर्या
बात मे बैठा छोड़ सब काम
आज बड़ा शुभ दिन ये आया
हर जिव्या पर अपना नाम पाया
समाज को देने निस्वार्थ शिक्षा
हम सम्मानित हो रहे थे
स्वयं को सबसे अच्छा बतलाकर
अपने आप को खो रहे थे
करने को अपना विज्ञापन
एक शाम हमने तय किया
चंद हाँ मे हाँ कहने वाले को
खाने पिने पर एकत्र किया
अपनी बड़ाई न छोड़ी कोई
बड़ बड़ाई हम सम न कोई
नन्हा जब पानी संग बर्फ लाया
हमने पढाई का महत्व समझाया
रात क्या हुआ था
क्या किसे कहा था
ये तो याद न था
पर नन्हा काम छोड़ चूका था
पत्नी ताना कस रही थी
अपनी तपस से बर्तन घस रही थी
समय न थमा न उम्र थमी
सरकारी कुर्सी न थमी
आज बिदाई दफ्तर से
नए अफसर को आना था
आँखे कमज़ोर
पर चेहरा लगा पुराना था
ज्यूँ ही वो झुका
आँखे फिर धोखा दे छलक गई
वो बोला बाबूजी नन्हे को शिक्षा आपकी थी
जो लग गई और आज आपके समक्ष झुक कर
नन्हे की शिक्षा पूरी हुई
आँखे सुखी दिल रोता था
वो बात तो अपनी बड़ाई थी
असली शिक्षा नन्हे ने नहीं
नन्हे से मैंने पाई थी
1 टिप्पणी:
शिक्षा की सही स्वरूप!
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