बुधवार, 13 अप्रैल 2011

मेरी दूजी हो

तुमने बुझा है जो, लो आज मै कहता हूँ 
वो सहा न जाता था, जो आज सहता हूँ 

वो मेरा था प्रथम प्रेम, 
जिसने झुलसना सिखलाया 
भूल गया कुछ याद नही 
पर तुम मेरी दूजी हो 

कदम थे दहलीज पर रखे 
तभी जो आया झोंका था 
सम्भल सम्भल सुध आई 
तुम वो समझी बुझी हो 
हाँ तुम मेरी दूजी हो 

प्रथम में जो कडवाहट थी 
सामाजिक घबराहट थी 
उस चक्रविहऊ से निकले
तो जो शांति खोजी हो 
वो तुम मेरी दूजी हो 

पुराने पन्ने खोल तुमने 
इति के तार क्यूँ छेड़े हैं 
विश्वास में घात समझ 
रहती तुम सूजी सूजी हो 
हाँ सुजो तुम दूजी हो   

शंका मन से निकालो  न ही मन में दुखी हो 
प्रथम प्रणय मेरा तुम, तुम ही मेरी दूजी हो  

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर प्रेम प्रतिवेदन।