सोमवार, 11 अप्रैल 2011

ख़ुशी आई

गरीब के घर आज ख़ुशी आई 
बेटी के रूप में किलकारी पाई
तेरा कर्म सब पर बराबर होता 
पर मेरे नसीब में गरीबी आई 

चाहता हूँ न ये यौवन तक जाये 
सुन्दरता न सम्मुख कभी आये 
स्वप्नों की दुनिया में बस ये देखे 
भूख समर्पण पसीने में नहायी 

गरीब के घर आज ख़ुशी आई 

नही फटा ये वस्त्र कभी पहने 
कान न कभी सुने नाम गहने 
तितली न कभी सखी हो इसकी 
बस याद रहे ये है गरीब की जाई

गरीब के घर आज ख़ुशी आई 

देह की अग्नि से दूर ही रहे सदा 
श्रम अभाव लाचारी इसकी सम्पदा 
दुल्हन पालकी प्यार से न वास्ता 
खेले संग लिए घुटन और तन्हाई
गरीब के घर आज ख़ुशी आई 

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, गरीब के घर आज खुशी आयी।

किलर झपाटा ने कहा…

बहुत अच्छी कविता।