रविवार, 10 अप्रैल 2011

शहर की छोरी

तुम ठहरी शहर की छोरी
मै खेड़े गाँव का बावला 
ये प्रेम क्यूँ कैसे हो गया 
मै मूढ़ फंसा अच्छा भला

तेरी सादगी मुझे है भाई 
छ्ल कपट की बू न पाई 
मै चाहूँ तुझे अपना पति
मुझे तू ही लगा सबसे भला

तेरी गोरी निखरी काया
यहाँ तगड़ी धूप का साया
तुझे दुखी दखने से पहले
ओ ऊपरवाले मुझे बुला

पिया जहाँ तू रहे मै रहूँ
तेरी सूखी में भी सुखी रहूँ
मेरा सोया भाग्य खुल जाये
जो लेलूं तेरी बुरी बला

अरी पगली जिद तू छोड़ दे
किसी शहरी से नाता जोड़ के
मुझ गरीब के पास न रहने को
नई चुनरी को नहीं एक धेला    

नही चुनरी तुझसे मांगू
ये शहरी रूप मै त्यागूँ
बस तुझ संग फेरे हो जाएँ
चाहे उसके बाद मर जाऊं

न ऐसे शब्द तू बोल
ले खड़ा मै बाहें खोल
आजा दोनों एक हो जाएँ
आई है मिलन की शुभ बेला

3 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

सादगी और सच्चाई से कही गयी दिल की बात अच्छी लगी| बधाई,,,,

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, अन्तर स्पष्ट है।

Taarkeshwar Giri ने कहा…

kamal ki kavita ha, bahut achha.