बुधवार, 13 अप्रैल 2011

चाहता हूँ

मौत के वातावरण में 
ठिठकते हर चरण में 
धर्म ग्रंथो की शरण में
सुनना सुनाना चाहता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ 

पीठ में कुछ घाव लिए 
सियासतों के दाव लिए 
मन में मसलते चाव लिए 
उड़ना उड़ाना चाहता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ 

शीशे में खुद को निहारता 
भीतरी गंद भीतर बुहारता 
बंद आवाज़ में सब पुकारता 
बसना बसाना चाहता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ 

मिर्च संग नीबू टांगकर  
काले तिलक भौंवे तानकर 
आग घर में लगा जानकर 
बचना बचाना चाहता हूँ
गुनगुनाना चाहता हूँ  

2 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

rajeevji aapke gungunane ke karan bahut sateek hai achhi sonch , badhai

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

शाश्वत चाह।