मौत के वातावरण में
ठिठकते हर चरण में
धर्म ग्रंथो की शरण में
सुनना सुनाना चाहता हूँ
गुनगुनाना चाहता हूँ
पीठ में कुछ घाव लिए
सियासतों के दाव लिए
मन में मसलते चाव लिए
उड़ना उड़ाना चाहता हूँ
गुनगुनाना चाहता हूँ
शीशे में खुद को निहारता
भीतरी गंद भीतर बुहारता
बंद आवाज़ में सब पुकारता
बसना बसाना चाहता हूँ
गुनगुनाना चाहता हूँ
मिर्च संग नीबू टांगकर
काले तिलक भौंवे तानकर
आग घर में लगा जानकर
बचना बचाना चाहता हूँ
गुनगुनाना चाहता हूँ
2 टिप्पणियां:
rajeevji aapke gungunane ke karan bahut sateek hai achhi sonch , badhai
शाश्वत चाह।
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