शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

गीत

मै गुनगुनाया जाता हूँ   
मै गुनगुनाया जाता हूँ  
धुन के धागे में पिरोकर 
धुन संग गाया जाता हूँ

सुबह पंछियों की चहक से    
सोंधी माटी की महक से  
बहते पानी से मचलते 
मीन जैसे खेल उछलते 
खेतों में लहलहाती सरसों 
कहीं खो गये अर्थ जो बरसों 
अब नही कहीं पाता हूँ 

मुझ में थी बेटी बिदाई 
रक्षा बंधन की कलाई 
प्रेमिका की नयन भराई
प्रेम के अर्थों की रुबाई 
ममता में वो डांटती माई 
खून पसीने की कमाई 
मुझमे ढूंढ़ नहीं पाता हूँ

देश भक्ति थी टपकती 
त्योहारों की ख़ुशी छलकती 
बालपन के खेल अनोखे 
एकजुट सब दूर थे धोखे
नदियाँ खेलें सागर सागर
गोरी के सिर छलके गागर
स्वप्नों में ही पाता हूँ

आज जो भी मुझमे आता
आकर कब वो गुम हो जाता
शब्द सरीखे पुष्प साथी  
अर्थों का इत्र लगाते थे 
कोई तो अब आगे आओ 
मेरे खोये शब्दों को लाओ 
अर्थों के अर्थ न पाता हूँ

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मुझ में थी बेटी बिदाई
रक्षा बंधन की कलाई
प्रेमिका की नयन भराई
प्रेम के अर्थों की रुबाई
ममता में वो डांटती माई
खून पसीने की कमाई
मुझमे ढूंढ़ नहीं पाता हूँ

Khoob kaha aapne....Bahut Sunder Panktiyan hain...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब जीवन गीत बन गुनगुनाने लगे तो मानिये कि उसे लय मिल गयी है।