चादर ओढ़ अमावस की
चमक बिखेरे थी हर आँख
मुस्कुराते अधर थे उनके
पूर्णिमा में जिनके फाँस
अँधेरा उनका रौशनी हमारी
धूल को धूल मिलाने को
भूल कर अपनी डगर यूँ
जग को डगर दिखाने को
पहले पा फिर तू दिखा
रौशनी भीतर, डग चमका
तू मिथ्या तेरी, मै त्याग
अमावस में जुगनू चमका
दिखा अँधेरे पथ में चलते
राहगीरों को भी राह दिखा
तू जाने पर भी रहे सदा
अपनेपन का पाठ सीखा
चमक बिखेरे थी हर आँख
मुस्कुराते अधर थे उनके
पूर्णिमा में जिनके फाँस
अँधेरा उनका रौशनी हमारी
जग की जगाती आस
आया था क्या जाने कोधूल को धूल मिलाने को
भूल कर अपनी डगर यूँ
जग को डगर दिखाने को
पहले पा फिर तू दिखा
रौशनी भीतर, डग चमका
तू मिथ्या तेरी, मै त्याग
अमावस में जुगनू चमका
दिखा अँधेरे पथ में चलते
राहगीरों को भी राह दिखा
तू जाने पर भी रहे सदा
अपनेपन का पाठ सीखा
2 टिप्पणियां:
खुबसरत रचना के लिए बधाई स्वीकार करें।
अपनेपन से क्या नहीं संभव है, सुन्दर रचना।
एक टिप्पणी भेजें