शनिवार, 7 मई 2011

सुख दुःख

ना सुख का तुझे पता है
ना दुःख का तू ज्ञाता है
सुख दुःख है दुश्मन भाई
एक आता एक जाता है

करनी भरनी अपनी अपनी
सुख दुःख ये झलकता है
एक रोता एक हँसता क्यूँ
जीवन ये ही बतलाता है

काहे चिंता करे दुःख की
क्षण भर का मेहमान ये
प्रेम की छाँव मे इसे धर
क्षणिक ठहर ना पता है

मानव का तो रिश्ता इनसे
क्यूँ ना समझ ये पाता  है
किसको कैसे पकडूँ छोडूँ
इसमें फँस ता वो जाता है

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

निर्द्वन्दो भव अर्जुन।

निर्मला कपिला ने कहा…

बस इसी पकडने छोदने मे ज़िन्दगी बीत जाती है। अच्छी रचना। बधाई।

Rakesh Kumar ने कहा…

काहे चिंता करे दुःख की
क्षण भर का मेहमान ये
प्रेम की छाँव मे इसे धर
क्षणिक ठहर ना पता है

जी हाँ राजीव जी प्रेम ही जीवन का सार है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.