शुक्रवार, 6 मई 2011

मिथ्या

चादर ओढ़ अमावस की
चमक बिखेरे थी हर आँख
मुस्कुराते अधर थे उनके
पूर्णिमा में जिनके फाँस
अँधेरा उनका रौशनी हमारी
जग की जगाती आस
आया था क्या जाने को
धूल को धूल मिलाने को
भूल कर अपनी डगर यूँ
जग को डगर दिखाने को
पहले पा फिर तू दिखा
रौशनी भीतर, डग चमका
तू मिथ्या तेरी, मै त्याग
अमावस में जुगनू चमका
दिखा अँधेरे पथ में चलते
राहगीरों को भी राह दिखा
तू जाने पर भी रहे सदा
अपनेपन का पाठ सीखा

2 टिप्‍पणियां:

Amit Chandra ने कहा…

खुबसरत रचना के लिए बधाई स्वीकार करें।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपनेपन से क्या नहीं संभव है, सुन्दर रचना।