रविवार, 15 मई 2011

आक्रोश मे पुस्तकें

आज ज्यूँ ही पुस्तकालय पहुंचा
एक अजीब विवाद छिड गया

सभी पुस्तकें मुझ पर टूट पड़ी
धार्मिक दल का नेता बोला
सर्व धर्म संपन अपना जग
तुने कौन सा धर्म अपनाया
साहित्य दल पकड़ गिरेबान
खिंच लाया मुझे उस स्थान
फिर मुझे पुस्तकें दिखलाई
जिसे पढ़ मैंने थी पदवी पायी
पुस्तकालय  की हर पुस्तक
आक्रोश मे आँखे गीली करती
यूँ मुझे एकटक ऐसे देखती
ज्यूँ मेरा सब मातम करती
मुझको सबका था एक ही ताना
दोस्त बना पर दोस्ती न जाना
आत्मा खरोंच मन पर जमा धोल
मुझको कहती क्यूँ बनाया मखोल
हमने सिखाया दोस्त कैसे बनाते
तुने दोस्त दर्शाया दुश्मन बनाते
सभी के स्वर उगलते एक ही पीड़ा
क्यूँ हमे दोस्त बना एकांकी छोड़ा
एकांकी का मतलब जब समझेगा
तब तू दोस्ती की चाह में मचलेगा
हर पुस्तक तब ढेर हो चुकी होगी
जीवन तेरे  दोस्त की कमी होगी
अंतिम इच्छा हो सके तो पूरी कर
घर का कोना बना रख हमे धरोहर
मानव पुस्तकालय की आत्मा हम
अब हमारा नही है दुबारा जन्म
हमे बांच तुने आविष्कार किये
आविष्कारों में हमारे हर्फ दिए
आज हम उन हर्फों बिना जीते हैं
दर्द अपना सहते पर होठ सीते हैं
हमारे परिवार एक यंत्र में बंधे
बस पूर्ण लुप्त की बाट जोहते हैं
एक वादा लेने की चाहत है हमे
दोस्ती यंत्र की तुम्हारी न थमे
अपना अब पूर्ण विराम का समय
पर यात्रा यंत्रो की कभी न थमे

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अभी कुछ दिन पहले ही पढ़ी थी यह कविता, आपके ही ब्लॉग पर?

Rakesh Kumar ने कहा…

आपकी इस कविता पर मैंने टिपण्णी की थी.लगता है गायब हों गई है.आपकी ये पंक्तियाँ अच्छी लगीं
सभी के स्वर उगलते एक ही पीड़ा
क्यूँ हमे दोस्त बना एकांकी छोड़ा
एकांकी का मतलब जब समझेगा
तब तू दोस्ती की चाह में मचलेगा

आप मेरे ब्लॉग पर आईयेगा राजीव जी,आपका हार्दिक स्वागत है.