ना सुख का तुझे पता है
ना दुःख का तू ज्ञाता है
सुख दुःख है दुश्मन भाई
एक आता एक जाता है
करनी भरनी अपनी अपनी
सुख दुःख ये झलकता है
एक रोता एक हँसता क्यूँ
जीवन ये ही बतलाता है
प्रेम की छाँव मे इसे धर
क्षणिक ठहर ना पता है
मानव का तो रिश्ता इनसे
क्यूँ ना समझ ये पाता है
किसको कैसे पकडूँ छोडूँ
इसमें फँस ता वो जाता है
ना दुःख का तू ज्ञाता है
सुख दुःख है दुश्मन भाई
एक आता एक जाता है
करनी भरनी अपनी अपनी
सुख दुःख ये झलकता है
एक रोता एक हँसता क्यूँ
जीवन ये ही बतलाता है
काहे चिंता करे दुःख की
क्षण भर का मेहमान येप्रेम की छाँव मे इसे धर
क्षणिक ठहर ना पता है
मानव का तो रिश्ता इनसे
क्यूँ ना समझ ये पाता है
किसको कैसे पकडूँ छोडूँ
इसमें फँस ता वो जाता है
3 टिप्पणियां:
निर्द्वन्दो भव अर्जुन।
बस इसी पकडने छोदने मे ज़िन्दगी बीत जाती है। अच्छी रचना। बधाई।
काहे चिंता करे दुःख की
क्षण भर का मेहमान ये
प्रेम की छाँव मे इसे धर
क्षणिक ठहर ना पता है
जी हाँ राजीव जी प्रेम ही जीवन का सार है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
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