जीवन तू सागर न बन
सागर हर वस्तु से खेलता
जिधर का रुख उधर धकेलता
पर मेरी नौका के आगे
सागर बेबस हो जाता है
जीवन तू देख सम्भल जा
हठ न कर धकेलने की
मुझ जैसे विरले मिलेंगे
न चाहें जीवन ठेलने की
जब तक मै था बिन नौका
तुने खूब धकेला था
अब मै नौका में चप्पू थाम
निश्चय कर अपना आया हूँ
तेरे अटखेलिओं के संग
स्वयं को न बहने दूंगा
तू दिशा रहित बिन मंजिल के
उस ओर नही बढने दूंगा
तू मेरा जीवन है
तुझे चलना होगा संग मेरे
दृढनिश्चय मेरा मंजिल का
तुझे बढना होगा संग मेरे
जिस नौका की चाह थी
वो नौका नाम दृढनिश्चय
ठान लिया तो ठान लिया
अपना ये छोटा सा परिचय
सागर खामोश बस हाथ मले
जब पतवार लहर विरुद्ध चले
जीवन तू सागर न बन
वरना जीवन, जीवन से हाथ मले
5 टिप्पणियां:
सुन्दर अभिव्यक्ति ... वैसे तो जीवन सागर सादृश्य ही होता है ...
सबको समेट लेने में कितना फैलाना पड़ता है, ऊर्जा को।
अति सुन्दर काव्य
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 07- 06 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
बहुत उम्दा!!
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