सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

टूटन

ये सामाजिक तौर तरीके
सच छुपे, आडंबर दीखे
रिश्ते कहाँ खो गये पुराने
आज रिश्ते खींचते दीखे

मौसम ने बदली पगडंडी
बिन मौसम मौसम दीखे
कब सांझ ढली कब भौर हुई
समय गया जाता न दीखे

खिंच रहे हो हर क्षण को
असमंजस में,रबर सरीखे
टूटन ही है पास तुम्हारे
न टूटे कुछ ऐसा सीखे    

  

6 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चलो जोड़ने निकला जाये।

आशा बिष्ट ने कहा…

bahut sundar bhav...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुन्दर रचना

अनुपमा पाठक ने कहा…

न टूटे कुछ ऐसा सीखे
सुन्दर!

Asha Joglekar ने कहा…

ना टूटे कुछ ऐसा सीखें ।
अवसर भी है, दस्तूर भी है तो आइये जोडते हैं ।

Sam ने कहा…

nice one..