अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई
बादल काले हो चले बोझिल से पानी भरे
गहन धुप घर चली साँझ को चाबी दिए
अब जलने लगे हैं चूलेह धुंए बतला रहे
पर मेरे चूलेह को लिपटने चिंगारी न आई
अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई
स्वप्न का ताना बुन आँखों में नींद समाई
सोई तो भी पर घर स्वप्न से न भर पाई
बैलों की जोड़ियाँ चली ले हल खेत जोतने
नसीब में सब लिखा पर बीज न लिखा पाई
अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई
लाडो सयानी हो चली ब्याहने का पंचांग लिए
न्योते आने लगे सभी हम उम्र दरवाजों से
डोली उठने लगी सूरज की किरणों से पहले
सूरज जग गया पर बेटी भाग्य हल्दी न आई
अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई
जिस रास्ते सब चले पथरों को तोडा था मैंने
लोहे ने सींच कर पत्थर जोड़ रास्ता बनाया
पत्थर टूट कर जुड़ गये गाँव शहर हो चले
अपने भाग्य का पत्थर न तोड़ कर जोड़ पाई
अंधकार तो आ गया पर रौशनी न आई
2 टिप्पणियां:
यही विडम्बना है। सार्थक प्रस्तुति।
अच्छी भावपूर्ण प्रस्तुति .
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