सोमवार, 19 मार्च 2012

दूरियां

सूरज दूर बैठा देखे भूखा रहे न कोई
अंधकार जो कहीं दिखे चमकाए वोई

सागर देख चंदा दौड़े पकड़ने को किरन
दुरी न कम प्रेम अजब भड़काए अगन

दूरियां न करती कभी प्रेम में कोताही
नयनन दूर होते तजे प्रेम जाने नाही

प्रेम न माँगा जाए कभी अपने आप ही आये
उपजाए न उपजे कभी उपजे कभी न जाए

  

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काश आपकी कल्पना सच हो जाये।

Kailash Sharma ने कहा…

दूरियां न करती कभी प्रेम में कोताही
नयनन दूर होते तजे प्रेम जाने नाही

....बहुत सुंदर भावमयी रचना...

Sunil Kumar ने कहा…

प्रेम न माँगा जाए कभी अपने आप ही आये
उपजाए न उपजे कभी उपजे कभी न जाए
बहुत ही सुंदर भावाव्यक्ति बधाई

Amit Chandra ने कहा…

प्रेम न माँगा जाए कभी अपने आप ही आये
उपजाए न उपजे कभी उपजे कभी न जाए

एकदम सत्य वचन.