जर्जर पिंजरा हो गया छुटा न पंछी मोह
कैदी समझे नासमझ उड़ने से भय होए
कैसी नादानी लिए चमकाए जिसमे रहे
उड़ान उसकी मंजिल भूल कैद में सोये
जाग अब डैने फैला देख गगन की और
तेरी मंजिल जोह रही तेरी अंतिम ठौर
कैदी समझे नासमझ उड़ने से भय होए
कैसी नादानी लिए चमकाए जिसमे रहे
उड़ान उसकी मंजिल भूल कैद में सोये
जाग अब डैने फैला देख गगन की और
तेरी मंजिल जोह रही तेरी अंतिम ठौर
2 टिप्पणियां:
बहुत गहन चिंतन...सुंदर अभिव्यक्ति...
गहन दर्शन, सरल शब्दों में।
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