लिए वो धुन, अपनी ही सुन
न कोई संग बिना डगर
चला चला मै यू चला
जो भी मिला, वो मिल गया
बिना कहे, बिना रुके
लिए उसे अपने ही संग
प्रवतों को चीरकर घाटीओ में कूदता
बस आँख अपनी मूंदकर
जिधर मिला उधर चला
चला चला मै यू चला
अपनी अनोखी राह थी
न बाम की न गाँव की
अपनी न कोई चाह थी
धरा की प्यास को बुझा
जिसने चाहा उसे मिला
इधर मिला उधर मिला
चला चला मै यू चला
झरना नदी नाला बना
सागरों को जोश बना
बादलों का शोर बना
बाढ़ का प्रकोप बना
क्रोधित हो विनाश बना
सूखे को ग्रास बना
चला चला मै यू चला
गोरी की गागरों में
प्यासों की प्यास बुझा
कहीं मीठा नमकीन बना
जिससे मिला वैसा बना
कर नालो को भरा भरा
नदिया में वो लहर उठा
चला चला मै यू चला
अलग अलग नाम मिले
अलग अलग गाँव मिले
बालकों का खेल बना
खेतों को खिला खिला
कल कल की वो धुन बजा
पर थक कर नहीं मै थमा
चला चला मै यू चला
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....पानी कि तरह ही बहती हुई
इस बार आपके लिए कुछ विशेष है...आइये जानिये आज के चर्चा मंच पर ..
आप की रचना 06 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
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