शनिवार, 28 अप्रैल 2012

हक नागवारा था

मन में उमंग नही थी कि प्यार करूँ, पर हो गया
ठान बैठा था कि कभी न इजहार करूँ, पर हो गया
नजरें चाहती थी तुम्हे हर पल देखना, देखती थी 
खुद को छुपता था तुमसे, पर सामना हो ही गया 

पहले नजरें दरवाजे पर होती थी, पत्र के इंतजार में
पहले नजरें छुप छुप रोती थी, उनके एक दीदार में 
आज  समय  ने करवट बदली, न दीदार न इंतजार 
अब  हम  तरसते हैं उनके, फोन  संदेश  प्यार में
  
आज वो भूल गये वो घंटी, समय के जो पाबन्द थे
रातें करवट में, दूर से लिपटने  के आदतमंद थे 
आज ये  कैसा मौसम  बदला, खोया सा पगला 
बोल पहला हमारा ना  सुना जिसकी खाए सौगंध थे  

समय का तमाचा था जो समय ने घुमा के मारा था 
टुटा हुआ  कांच  सा बिखरा था जो स्वप्न हमारा था 
हम  औन्धे पड़े सोचते रहे, प्यार को ही पूजा हमने
पर उन्हें हक जताना हमारा उनपर  ही नागवारा था  

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हक से हक्का बक्का...